अभी तक इस ब्लॉग को देखने वालों की संख्या: इनमे से एक आप हैं। धन्यवाद आपका।

यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

धै !!! मेरा घौरे की

सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब,
यख बस असमान ही असमान च, 
कखि न त धरती च, न पहाड, न कोई बौण, 
न कोई डाली बोठली,
कु जाणि वख घोर मा, बौण कण होला?
पन्देरा कण होला वु घुघूती कण होली?  

सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब,
वखि वे बौण मा, 
जू जलणु छौ ये जेठ मा, जू जेठ बारो मासी छौ,
वखि जख हमारू अपरू घौर छौ,
वे बौण मा जू वु बरगदो डालु च,
जू फुकेगी ये विगास मा, 
हमारा बरगदे का विनाश मा,
वे मा मौल्यार ए जाली,
मेरी लाटी, मेरी चखुली,
तू जु एक बार घोर ऐ जाली।         

देख दी वे बौण मा सब्बि डाली सूखी गेन,
वेका सारा पोथ्ला फुर्र करी के उड़ी गेन,
सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
बोड़ी की जू घौर हम जोला,
यु अमर जेठ खत्म हुए जालु,
तेरा मेरा अर ये बोण का, ये बरगद का,
आँख्यों का बस्ग्याला का बाद,
जू बसंत औलू,
वू ही सदानि रेलू,       
सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब,
वु पुरखों कू घौर,
हम पोथ्लों कु ठौर,
धै लगौणु च हमते,
चल अपरा जोड़ों ते खोजदन  अब, 
सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब। 

बुधवार, 19 अगस्त 2015

एक अकेला ठूँठ


सुबह सुबह एक ख्वाब आया, 

देखा कि मैं किसी बंज़र सूखी जमीन पर खड़ा हूँ,
मैं हूँ,एक अकेला ठूँठ किसी पेड़ का,
सूखा और हर किसी से रूठा हुआ,
जमीन के भी माथे पर शिकन नुमा,
दरारें थी, न जाने कितनी गहरी। 
एक दम सूखी टूटी फूटी, 
उन दरारों देख कर जमीन की,
मुझे अपने कुछ रिश्ते याद आ गए। 
उनमें भी यूँ ही सूखा पड़ा था। 
उनमें भी कुछ यूँ ही दरारें थीं।

कुछ दरारें माँ बाप के साथ की दिखी,
जिनके बिना बचपन में मुझसे रहा नहीं जाता था। 
और आज उनका बोझ भी सहा नहीं जाता। 
हर दिन बात करना तो बहुत बड़ी बात है,
पर हफ्ते में कभी फ़ोन पर बात हो भी जाती है,तो, 
समझता हूँ कि,एक बड़ा एहसान कर दिया मैंने उनपर। 
भाई का हाल तो पता ही नहीं मुझे,
अब उसकी फैमिली अलग और मेरी अलग हो गयी है न। 
कभी हम भी एक ही फैमिली का हिस्सा थे। 
साथ साथ खेले थे कभी,
और आज हाल भी नहीं पूछते कभी।
याद है बचपन में कभी भाई कहीं फंस जाता था मुसीबत में,
तो मैं हाथ बढ़ा कर उसे थामता था, गले लगाता था,
आज तो भाई से हाथ भी नहीं मिलाया जाता,
गले लगाना तो बड़ी बात है। 

मेरे पर एक सूखी बेल भी लिपटी हुई थी,
शायद मेरी बीवी थी वो, सूखी हुई मुरझाई हुई,
शिकायत से भरी हुई कि, मैंने उसे पनपने ही नहीं दिया,
खुद की दुनिया में इतना फैला कि उसे भी सोख लिया,
वो लिपटी तो थी मुझसे वो, 
पर कहीं कहीं पर कुछ फासले थे,
जो दिखने में तो,बाल बराबर ही थे, 
पर यूँ महसूस होते थे, गोया हम दूर हों इतना कि,
लाख सदायें दें एकदूसरे को, 
पर ना तो मुझे वो दिखती ही है,ना मैं ही उसे सुनायी देता हूँ। 
हम तो जमीन से पानी सोखने में,सूरज से रौशनी लेने में, हवा लेने में, 
इतना ज्यादा खो गये थे कि,पता ही नहीं चला कि कब ये, 
पलों की दूरी, सदिओं के फासले हो गए।

दोस्ती भी मतलब से ही की थी मैंने,
हवा, जमीन, पानी से कि मेरा मतलब निकल जाये,
और आज हकीकत ये ही है कि,
वो सब साथ तो हैं मेरे, पर जमीन सूख गयी,
हवा रूठ गयी, पानी का पता ही नहीं है अब,
मैंने तो कभी कोशिश भी नहीं की, कि, ये दूरी क्यों हैं,
मैं तो जमीन से नीचे भी था, और ऊपर भी,
लगा था आकाश छू लूंगा, मुझे इनकी क्या जरूरत।
कदर नहीं कर पाया, पर, 
आज बहुत याद आते हैं ये सब,
जहाँ मैं दरारों की जमीन पर खड़ा हूँ,
एकदम तन्हा, एक सूखे हुए दरख्त के ठूँठ की तरह। 
आँख खुली तो देखा कि वाक़ई में ये दरारें हैं,
वाक़ई में मैं एकदम तन्हा हूँ ,एक सूखे हुए दरख्त के ठूँठ की तरह।
मैंने तो दरारों को वक़्त रहते पाटा नहीं,
पर आप पाट लो इनको वक़्त रहते,
नहीं तो कहीं किसी जमीन पर खड़े होंगे,
मेरी ही तरह, 
एकदम तन्हा, एक सूखे हुए दरख्त के ठूँठ की तरह।