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बुधवार, 27 मई 2015

लघु कथा 1: "रुई का बोझ" -अतुल सती 'अक्स'


"हमने कह दिया तो कह दिया, हम तुम्हारे साथ दिल्ली शिफ्ट नहीं हो सकते। अब इस उम्र में कहाँ हमसे वहां एडजस्ट हो पायेगा?"
अवधेश जी की कांपती आवाज़ में रुआसापन साफ़ झलक रहा था। क्रोध और मजबूरी की मिश्रित भावना उनकी आवाज़ में घुली हुई थी।    

"हमने अपनी सारी ज़िन्दगी यहीं, इसी शहर में गुजारी है। यहाँ हम सबको जानते हैं, सब हमको जानते हैं। वहां दिल्ली में तो हम किसी को जानते भी नहीं …."
कुछ देर चुप रहने के बाद अवधेश जी अपने बेटे राकेश से  बोले "तुम और बहू तो ऑफिस चले जाओगे, हम तो वहां भी अकेले ही रह जायेंगे।"

कमरे में एकदम सन्नाटा पसर गया था। बेटा राकेश, बहू  सुनंदा एकदम खामोश हो गए थे।  ये दोनों के दोनों अवधेश जी के रिटाएर होने के बाद उन्हें और पत्नी सीता को लेने आये थे।    

"वैसे भी पिछले १५ सालों से हम दोनों अकेले ही तो थे। पहले तुम पढ़ाई करने घर से बाहर चले गए, फिर नौकरी के लिए।  और अब तो शादी कर के तुम वहीँ बस गए हो। जब से तुमने अपने लिए  फ्लैट और कार ली है, और जब से तुम माँ बाप बने हो, तभी से तुम दोनों मेरे रिटाएर होने के बाद हम दोनों को अपने साथ रखने और पुरखों की जमीन और घर को  बेचने की जिद्द लिए बैठे हो।"  बहुत बड़ी बात बोल दी थी अवधेश जी ने।  राकेश और सुनंदा नज़रें झुकाए खड़े थे।

"नहीं पिताजी!!! आप और माँ ये मत समझना की हम आपको सिर्फ मुन्ना की देख रेख के लिए ले जा रहे हैं और यहाँ की जमीन और ये घर बेच कर लोन चुकाना चाहते हैं, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। बल्कि हम दोनों को तो आपकी बहुत चिंता होती है, आप लोग हमारे आँखों के सामने रहेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।"   - राकेश ने घबरहट के साथ बात को सँभालने की कोशिश की।

माँ और पिता जी की आँखों में दुःख और गुस्से से लबरेज़ सवालों को देख कर राकेश जान गया था कि उसने 'चोर की दाढ़ी में तिनका' वाली बात कर दी है।

"बेटा !!! माँ बाप जब तक समर्थ होते हैं और कमा रहे होते हैं हैं तब तक वो सूखी रुई की तरह लगते हैं, मुलायम,गद्देदार और हल्के। लेकिन जब वो बूड़े, असमर्थ और रिटाएर हो जाते हैं तो वो ही रुई, भीगी हुई लगती है, चिपचिपी,गीली और बहुत भारी। ऐसी रुई का बोझ तुमसे न उठाया जाएगा …. तुमसे न उठाया जाएगा"
                                                                       -अतुल सती 'अक्स' 

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