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रविवार, 31 जुलाई 2016

खैर


मैं चाहता हूँ, 
रहना पहाड़ों में,
जीना पहाड़ों में,
मरना पहाड़ों में,
पर कल तन्ख्वाह मिलेगी तो,
किराया भरूँगा, किश्त भरूँगा,
बेटे की फीस भरूँगा,
पहाड़ से दूर रह कर,
ख्वाहिशों को मार कर,
जरूरतों को जिन्दा रखूँगा,

खैर,             
क्या मैं चाहता हूँ? 
क्या करता हूँ मैं?
ये मुझको भी पता है,
ये तुमको भी पता है। 

मैं रहता था,
मस्त अपनी दुनिया में,
गंगा का छाला और
ह्युन्चलों के बीच में ,  
पर कल फँसा रहा जाम में,
तो गौर से देखा गाज़ीपुर का पहाड़,
मरी हुई यमुना, गंदे नालों की गाड़,
ये ही सब, अब हिस्सा हैं मेरे,
घर -ऑफिस की दौड़ में फँसा हूँ,
साँसे चल तो रही हैं, शायद जिन्दा हूँ,       

खैर,             
कहाँ होना था मुझे?
कहाँ होता हूँ मैं?
ये मुझको भी पता है,
ये तुमको भी पता है। 

मैं जाना चाहता हूँ, 
बूढ़े माँ बाप के पास मीलों दूर, 
अकेले हैं, घर बुलाते हैं, 
मैंने कहा कि छुट्टी नहीं है,  
कल मेरा वीजा इंटरव्यू है,
खुद के लिए या कंपनी के लिए,
डॉलर कमाना है मुझे,  
यहाँ और वहाँ में फंसा हूँ मैं,  
दरम्यां ख्वाहिशों और जरूरतों के,    
बड़ा ही बुरा फंसा हूँ मैं,
          
खैर,   
कहाँ होना चाहिये मुझे?
कहाँ होऊँगा मैं ?
ये मुझको भी पता है,
ये तुमको भी पता है। 


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