हमने उम्र सारी गुजार दी उन्हें भुलाने में,
वो अब भी लगे हैं सब्र मेरा आजमाने में।
कब्र पर मेरी, मेरे रक़ीब संग आये हैं वो,
वो अब भी बाज नहीं आये,हमें जलाने में।
माँ बाप घर से बेघर कर, पालें हैं जानवर,
कोई कसर न छोड़ी खुदको हैवान बनाने में।
मज़हब वो,जो मजबूर न करे, मज़लूम न करे,
कभी तो कुछ करें,मज़हब को मज़हब बनाने में।
एक मुद्दत लगी तो बना था आशियाँ कोई,
पल भर भी तो न लगा,उन्हें इसे जलाने में।
खुद ही अब क़त्ल का सामान बांटता है यहाँ,
कुछ तो गफलत हुई होगी,उसे खुदा बनाने में।
नामे-दीन पर हर कोई बना है ख़ुदा यहाँ 'अक्स',
सुना था,कई बरस लगे थे,उसे इंसान बनाने में।
-अतुल सती 'अक्स'
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