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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

मेरा सच



मन भर गया है इस दुनिया से,
इन रिश्तों से नातों से।
खुद कभी कुछ नहीं जान पाया,
मेरा खुद का नाम तक दूसरों ने मुझे बताया।
अपने आप तक को अपना नहीं कह सकता,
तो माँ बाप,पत्नी पुत्र के रिश्तों को अपना क्यों बताया?
एक सच जो कभी किसी ने न बतलाया हो,
खुद ही खोजा हो, खुद ही अपनाया हो।
आज तक नहीं खोज पाया।
खून का रिश्ता कहते तो हैं, पर खून एक नहीं है।
और जिससे खून मिलता है वो अपना नहीं है।
जो खुदा को माने वो ही मुल्ज़िम, वही मजलूम,
जो किसी खुदा को न माने वही क्यों सुखी जिया है।
मेरे जीवन का हर एक सच किसी और ने कहा है,
अभी तक किसी का पुत्र, किसी का भाई,
किसी का पिता तो किसी का पति,
बस ये ही तो चरित्र जिया है।
मैं वही क्यों मानूँ जो अतीत में मेरे पुरखों ने कहा है।
किसी भी रंगमंच पर कुछ भी सत्य नहीं होता है,
तो इस जीवन के रंगमंच पर सब सत्य कैसे?
ये तेरा भगवान वो उसका अल्लाह,
तू मर्द है वो तेरी औरत,
ये अच्छा वो बुरा,
ये दिन है वो रात,
प्यार मुहब्बत नफरत की सौगात,
इस बात पर हँसों क्यूंकि सब हँस रहे हैं,
अब रोओ क्यूंकि सब रो रहे हैं।
मेरे आने से पहले जैसी ये दुनिया थी,
क्या मुझको भी ऐसे ही जीना होगा?
कौन तय करे,
मेरा जीवन, है भी की नहीं?
मैं किसको क्या कहूँ क्या नहीं ?
किसको मानूं किसको नहीं?
अपनी बात क्यों नहीं दूसरों को बताऊँ?
जैसा भी मैं चाहता हूँ वैसा क्यों नहीं जीता जाऊं?
नहीं जीना मुझे तुम्हारी इस नकली रंगमंच सी दुनिया में,
एकदम अकेला ही था, अकेला ही हूँ अकेला ही रह लूँगा,
अपनी दुनिया एक नयी खुद ही बना लूँगा।
पर तुम्हारी इस दुनिया में नहीं जी सकूंगा नहीं जी सकूंगा।
                        -अतुल सती 'अक्स' 

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

गढ़वाल से भेर यू कण गढ़वाल




नौं का ही अब यख गढ़वाली बच्यां छन,
गढ़वाल से भेर सब्बि शर्मा बण्यां छन।     

पहाड़ सुखो कु जू हो त पहाड़ नि लगदु, 
दुःखो का ढेरा यख पहाड़ जन बण्यां छन।  

अपरा बच्चों कू भार त रूई जन हल्कू, 
अर बुए बुबा गर्रा पहाड़ जन लग्दा छन।     

हिंदी अर अंग्रेजी अब मातृपितर भाषा,
अर गढ़वली बुलाण मा कांडा पड़दा छन। 

देबता हुएगिन बाबा लोगूं की मूर्ती अब यख ,
अर कुल देवता घोर मा ढुंगा जन धोल्याँ छन। 

गढ़वाल से भेर वालों ते सरु गढ़वाल अब गौं,
अर गढ़वाल मा रैण वाला गौं वाला बण्यां छन।

अपरी पितरों की सैंती कूड़ी ते छोड़ छाड़ि की,
भेर देस मा, फ्लैट का कुमचरि मा कुचियां छन।
     
अपरी पहाड़ी पावन पछाण ते लुके की,   
गढ़वाल से भेर यू कण गढ़वाल बनौणा छन।   
                        -अतुल सती 'अक्स'     

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

पथ्थर


#
मेरी नींद में,गहरी नींद में,
आया एक सपने में मंजर, 
मैंने देखा,पथ्थरों से बना,
 एक शहर, बड़ा ही सुन्दर। 

ऊंचे ऊंचे घने जैसे हों जंगल 
ऐसे बसे थे वो पथ्थरों के घर,
झाँका अंदर जो,तो देखा मैंने,
घर में रहते थे कुछ पथ्थर।   

कुछ टूटे फूटे से,ऊबड़खाबड़ से,
अजीब अजीब से थे वो पथ्थर।
यहाँ से वहां, बस चलते फिरते,
अलग अलग रंगों के वो पथ्थर। 

सारे रिश्ते चूरा चूरा हुए पड़े थे,
शहर के हर एक घर के अंदर,
ढोते ऐसे हैं एक दूजे को,
जैसे ढोते हैं सब पथ्थर। 

उसी शहर के एक कोने में ,
पथ्थर उछाल रहे थे, पथ्थर। 
देख उन्हें चुपचाप कुछ पथ्थर ,
भागे भागे जा रहे थे अपने घर। 

घबरा कर गया, जब एक मंदर,
चौंक गया देख कर वो मंजर ,
घेर कर एक पथ्थर को अंदर,
पथ्थर पूज रहे थे  पथ्थर।

जब नींद खुली तो पाया मैंने, 
खुद को लेटा, अपने ही घर। 
दौड़ कर जब आईना देखा, 
मेरा 'अक्स', वो भी था पथ्थर।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

तरक्की की सीढ़ियां



कभी   इस समाज से लड़ना पड़ता है।  
कभी कभी खुद से भी लड़ना पड़ता है।  
इस पाशविक पुरुष प्रधान समाज के,
बिस्तर को भी गरम करना पड़ता है। 
सत्ता औ ताकत पाने को, औरत को,
जाने क्या क्या नहीं   करना पड़ता है।
चढ़ने वाला, चढ़ाने वाला, दोषी कौन,
दोनों ही चुप, चुप ही रहना  पड़ता है। 
ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं है  हकीकत,
पैसे की भूख बड़ी है, चुप रहना पड़ता है।
फर्श से अर्श को जाने को इन सीढ़ीओं पर,
हर कदम पर समझौता   करना पड़ता है।
आज कल जितना ऊंचा उठना है 'अक्स',
अक्सर उतना ही  नीचे गिरना पड़ता है। 
                            -अतुल सती 'अक्स'

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

मिथ्या


इस देश में क्या कभी किसी कृष्ण का जन्म हुआ था, 
या ये केवल मिथ्या है। 
अगर हुआ भी था जन्म तो,
क्या उनका प्रेम,राधा का समर्पण, 
बस एक कोरी मिथ्या है।
खुजराहो भी एक मिथ्या है,
कामसूत्र मिथ्या है।   
रति कामदेव मिथ्या है, 
पांडव जननी कुंती मिथ्या है।
विश्वामित्र काल्पनिक थे या फिर,
मेनका भी कोई मिथ्या है।
पार्वती तप मिथ्या है,
या मीरा की पूजा मिथ्या है।
जब सदा से ही प्रेम पूजा है,
जब सदा से ही कृष्ण को पूजा है। 
जब पार्वती ने शिव को पाया है,
जब राधा को कृष्ण भाया है। 
जब मीरा ने प्रेम विष पाया है। 
जब कामदेव को जलाया है। 
कर्ण जब धरा पर आया है। 
जब मेनका ने विश्वामित्र को लुभाया है। 
तो वो सब क्या था प्रेम ही तो था। 
विवाह था या नहीं पर वो प्रेम ही तो था। 
तो फिर आज क्यों प्रेम विरोध है?
फिर क्यों मिथ्या प्रतिष्ठा अवरोध है?
ये हमारी ही संस्कृति थी,
ये ही हमारी संस्कृति है। 
अगर नहीं ये संस्कृति है, 
तो कह दो सब कुछ मिथ्या है,
ये प्रेम, पूजा, इतिहास सब मिथ्या है। 
हमारी संस्कृति मिथ्या है?
खुजराहो कामायनी मिथ्या है। 
मेघदूत सब मिथ्या है। 
प्रेम विरोध, एक हत्या है,
ये कथन भी एक मिथ्या है।       
                 -अतुल सती 'अक्स'                   

कण अजीब बात च ?

#
  कण अजीब  बात च ?
नापी की,अफ्फु ते पूरु,
जब भी एक चदरू खरीदी की लोंदु छौं,
हर  दफा अफरा खुटु ते,
एक बिलिस्त भेर  ही पांदु छौं। 
#
पाई  पाई  ते तरसी की,  
जब भी, कै खजणू ते पांदु छौं। 
बस एक पाई कखिन और मिल जांदी, 
ये ही जुगाड़ मा लग्युं रेंदु छौं। 
#
अग्णे  भगणे की दौड़ मा,
सब्युं ते पिछणे छोड़दु जांदू छौं,  
यन त दगड्या भिजां छन यख,
पर दगडू कम कू ही यख पांदु छौं। 
#  
सेरा सुख खरीद ल्यूं सोच्दु छौं,  
पर हर दफा अपरू खीसु फट्यूं पांदु छौं,  
सांस, त यन रोज ही लेन्दू छौं पर,
कुजणी, जीणू ते किले तरस जान्दुं छौं?
कण अजीब  बात च ?
नापी की,अफ्फु ते पूरु,
जब भी एक चदरू खरीदी की लोंदु छौं,
हर  दफा अफरा खुटु ते,
                               एक बिलिस्त भेर  ही पांदु छौं।                            
                                            -अतुल सती 'अक्स '

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

वो कल ...

#
ना  जाने  कल  तूने  क्या  कहा ?
लबों  पर  जुम्बिश  हुई  भी  नहीं ,
और  जो  सुना  वो  थमता  भी  नहीं ..

ना  जाने  कल  तूने  हथेली  पर  क्या  लिखा ?
कुछ  दिखता  भी  नहीं ,
और  जो  लिखा  वो  मिटता  भी  नहीं ...

ना जाने किस तरह की करीबी का एहसास है?
तू करीब  आता भी  नहीं ,
और  मुझसे  दूर जाता भी  नहीं ..

ना जाने किस तरह का ये यार-ए-दीदार है?
'अक्स'  जाहिर  होता  भी  नहीं ,
और सही  से मुझसे छुपता  भी  नहीं ...

ना  जाने  कल  तूने  क्या  कहा ?
लबों  पर  जुम्बिश  हुई  भी  नहीं ,
और  जो  सुना  वो  थमता  भी  नहीं ..
                                                    -अतुल सती 'अक्स'

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

या दुनिया, मी अर मेरी बथ

#
मेरी ही बथ, अपरा गीतों मा वू सुणौली,
संगीत चीज़ ही यन च,य बाज नी औली?

मी जू भी बोल्दू छौं, गंभीरता से बोल्दू छौं,
वेकु ध्यान आज नि च यख,भोल बींग ही जाली। 

अभी त लुकीं च वू, ये पर्दा का आड़ मा,
जब हमते जाणली,अफ्फु समणी ऐ ही जाली।

अभी कुछ कसर छें च, वेका पकण मा,
आटु गीलू च,तपी तपी की रोटी बण ही जाली।

वू रेतु दबोणा छां, मुठ्ठी टैट बोटी की,
यू उमर च लाटा, ढल ढल की ढल ही जाली। 

जेकि देह ता भींजा सुन्दर, पर आत्मा च काली,
यन सुंदरता भी ता कख सुंदर बोली जाली?

लाटी च य मुंथा, जू तुएते नि बींग सकी 'अक्स',
कुछ देर ठैर ता सई, बींगदी बींगदी बींग ही जाली।

नया मजहब नयी दुनिया



#
मैं आज एक नया, भगवान बना रहा हूँ,
गौर से सुनो, अपनी कहानी, सुना रहा हूँ।

जिसको माना है बचपन से अलग अलग,
'अक्स' उनके ही अब बा-अदब, मिटा रहा हूँ।


बाहर बस बुतपरस्ती है या अजानों का शोर है,
मैं अंदर अपने उस का तस्सुवर, जमा रहा हूँ।

मेरा खुदा तेरे खुदा जैसा या फिर जुदा क्यों हो?
अपने ही जैसा, मैं अपना ही खुदा, बना रहा हूँ।

कैसे चलना चाहिए, सिखाता था जो मुझको,
गिर गया है वो जमीं पर,उसी को, उठा रहा हूँ।

नहीं जरूरत अब, बाहर के उजालों की मुझे,
मैं अपने ही अंदर, अपना सूरज, उगा रहा हूँ।

गीता-कुरान-बाइबिल नहीं पढ़ीं, उनकी ही कसम, 
जो भी सुना रहा हूँ, खालिश सच, सुना रहा हूँ।

कत्ले आम हर ओर, ये सब मजहबी फसाद हैं, 
जहाँ कोई खुदा न हो,मजहब नया, बना रहा हूँ।

पगड़ी, तिलक, क्रॉस, टोपी हटा दो 'अक्स',
जहाँ इंसान हों बस,दुनिया नयी, बना रहा हूँ। 

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

पिता पुत्र-कर्तव्य बोध:

#
सुनो पुत्र तुम आरुष हो मेरे !!! 
मेरे अंश,  लाडले हो मेरे।   
मैं हूँ सूर्य!!! मैं पिता हूँ तेरा। 
प्रथम प्रकाश पुंज हो तुम मेरे,

कैसे प्रकाशित होते हैं, 
ये मैं ही सिखलाऊँगा। 
क्या प्रकाशित करना है?      
ये पर मैं ना बतलाऊंगा। 

कैसे सोचा जाता है,
मैं ये भी सिखलाऊँगा। 
क्या सोचना है तुमको?
ये पर मैं ना बतलाऊंगा। 

मुझसे नहीं तुमसे ही तो,
होते हैं सर्वत्र सवेरे।   सुनो पुत्र !!! तुम आरुष हो मेरे !!! 
  
कैसे ऊष्मा देते हैं,
ये मैं ही सिखलाऊँगा। 
किसे उर्वर किसे करो मरू ,    
ये पर मैं ना बतलाऊंगा।

कैसे जीवन जीना हैं,
मैं ये भी सिखलाऊँगा।
क्या जीवन बनाना है?
ये पर मैं ना बतलाऊंगा।

तुमसे ही जीवन मृत्यु पाते,
ग्रह जो लेते हैं मेरे फेरे। सुनो पुत्र !!! तुम आरुष हो मेरे !!!      

मेरा गौं की किस्मत

मेरा गौं की किस्मत - अक्स
#
ये दाँ मेरा गौं की हवा पाणी वन नी छे,
जन मिन अपरा बचपन मा देखी छे।
बाँझा पड्यां पुंगडा, टुट्यां फुट्यां घोर,
हमुन ही मार देयी ये गौं ते,सब जाणी की,
वन ता मेरा गौं की किस्मत यन नि छे।
           
सुणी छौ मिन, बल, रामू बोड़ा मोरी जब ,
तब सब कठ्ठा नि हुए सकिन उंते उठौण ते,
अर एक वखत मिन यु भी देखी छौ गौं मा,
जब घिर्र करी की सब्बि कठ्ठा  हुएंदा छां,
कब्बि रौपणि ते, ब्यो ते, त कभी पुजै ते। 

भड्डू मा पकी दाल अर सौदा  दुधे चायो उबाल,
गाली देणी च बोड़ी,फेर  खै ली गौडिन उजाड़,
बीड़ी का धुएरुं मा मंगतू बोड़ा की वू बथ चित,
वू पन्देरा मा पल्ले छाले की छेला बौ छुयांल,
माछों  ते जाण, कबि ये गदना त कबि वे गाड़।

पर ये दाँ मेरा गौं की दशा पेली  जन नि छे,
बग्वाल मा भेल्लो नि छौ, साली मा गौड़ी नि छे ,
ब्यो मा मन्याण नि छौ, झुमेलो की बथ नि छे,
हमुन ही मार देयी ये गौं ते,सब धाणी जाणी की,
वन ता मेरा गौं की किस्मत यन नि छे।
              -अतुल सती 'अक्स'