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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

नया मजहब नयी दुनिया



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मैं आज एक नया, भगवान बना रहा हूँ,
गौर से सुनो, अपनी कहानी, सुना रहा हूँ।

जिसको माना है बचपन से अलग अलग,
'अक्स' उनके ही अब बा-अदब, मिटा रहा हूँ।


बाहर बस बुतपरस्ती है या अजानों का शोर है,
मैं अंदर अपने उस का तस्सुवर, जमा रहा हूँ।

मेरा खुदा तेरे खुदा जैसा या फिर जुदा क्यों हो?
अपने ही जैसा, मैं अपना ही खुदा, बना रहा हूँ।

कैसे चलना चाहिए, सिखाता था जो मुझको,
गिर गया है वो जमीं पर,उसी को, उठा रहा हूँ।

नहीं जरूरत अब, बाहर के उजालों की मुझे,
मैं अपने ही अंदर, अपना सूरज, उगा रहा हूँ।

गीता-कुरान-बाइबिल नहीं पढ़ीं, उनकी ही कसम, 
जो भी सुना रहा हूँ, खालिश सच, सुना रहा हूँ।

कत्ले आम हर ओर, ये सब मजहबी फसाद हैं, 
जहाँ कोई खुदा न हो,मजहब नया, बना रहा हूँ।

पगड़ी, तिलक, क्रॉस, टोपी हटा दो 'अक्स',
जहाँ इंसान हों बस,दुनिया नयी, बना रहा हूँ। 

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