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सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

पथ्थर


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मेरी नींद में,गहरी नींद में,
आया एक सपने में मंजर, 
मैंने देखा,पथ्थरों से बना,
 एक शहर, बड़ा ही सुन्दर। 

ऊंचे ऊंचे घने जैसे हों जंगल 
ऐसे बसे थे वो पथ्थरों के घर,
झाँका अंदर जो,तो देखा मैंने,
घर में रहते थे कुछ पथ्थर।   

कुछ टूटे फूटे से,ऊबड़खाबड़ से,
अजीब अजीब से थे वो पथ्थर।
यहाँ से वहां, बस चलते फिरते,
अलग अलग रंगों के वो पथ्थर। 

सारे रिश्ते चूरा चूरा हुए पड़े थे,
शहर के हर एक घर के अंदर,
ढोते ऐसे हैं एक दूजे को,
जैसे ढोते हैं सब पथ्थर। 

उसी शहर के एक कोने में ,
पथ्थर उछाल रहे थे, पथ्थर। 
देख उन्हें चुपचाप कुछ पथ्थर ,
भागे भागे जा रहे थे अपने घर। 

घबरा कर गया, जब एक मंदर,
चौंक गया देख कर वो मंजर ,
घेर कर एक पथ्थर को अंदर,
पथ्थर पूज रहे थे  पथ्थर।

जब नींद खुली तो पाया मैंने, 
खुद को लेटा, अपने ही घर। 
दौड़ कर जब आईना देखा, 
मेरा 'अक्स', वो भी था पथ्थर।

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