अभी तक इस ब्लॉग को देखने वालों की संख्या: इनमे से एक आप हैं। धन्यवाद आपका।

यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 24 जुलाई 2017

बच्चों सी बातें

आसमान सतरंगी कहता हूँ
बादलों के साथ खेलता हूँ
तारों की चादर ओढ़ कर,
चाँद को झिलमिल बहता हुआ,
वो जो रात को नदी को देखते हुए,
दिखता है न,
उसे,
हाँ उसी झिलमिल बहती चाँदनी को अपनी आँखों में समेटता हूँ।
और लोग कहते हैं
कि मैं बच्चों सी बातें करता हूँ। 

जब अचानक से एक तितली घूमती है आसपास,
और हवा में उड़ते हुए आता एक सेमल का कपास,
कोई कली कहीं जब भी खिलती है,
आहा!
बारिश की मिटटी से सौंधी हवा महकती है,
मैं नाचता हूँ, गुनगुनाता हूँ।
और लोग कहते हैं
कि मैं बच्चों सी बातें करता हूँ।

रात हुई तो जुगनू पकड़ कर मैं,
छोड़ देता हूँ आसमान में तारे बनने को,
और जब चलता हूँ नंगे पाँव और मखमली लगे ओंस से भीगी घास,
कैसे कोई भूल सकता है वो अनूठा एहसास।     
मैं आज भी उसी एहसास को तरसता हूँ,
और तुम कहते हो
कि मैं बच्चों सी बातें करता हूँ। 
                            -अतुल सती अक्स

रविवार, 23 जुलाई 2017

 देवालय मदिरालय वैश्यालय का दोगलापन 

ऊँच नीच,
ये जात धरम सब,
देवालय में होता है।  
मदिरालय या,
वैश्यालय में,
ये दीनधरम,
कहाँ होता है।  

मदिरालय में ,
जाके खुदको, 
जग से दूर,
भगाते हैं।
घर को अपने,
स्वाहा कर के,
कैसी प्यास,
बुझाते हैं। 
 
    
वैश्यालय में,
आते सज्जन,
छुप कर आते,
जाते हैं। 
किसकी बीवी,
किसकी बेटी,
बस नोंच नोंच कर, 
खाते हैं।   

अट्हास करता,
नपुंसक पौरुष,
सिसकता है,
नारीत्व यहाँ। 
भोग विलास,
और लूट खसोट,
बस ये है इनका,
पुरुषत्व यहाँ।         

परनरगामी जो,
हुई,
वो तो है,
नीच यहाँ। 
परनारीगामी जो,
है बना,
फिर वो कैसे,  
उच्च यहाँ?  

कौन है साक़ी,
कौन हमबिस्तर,
मतलब किसे,
कहाँ होता है?
तन की भूख,
मिटाने वाला,
बस गिद्ध बना,
यहाँ  होता है।

ऊँच नीच,
ये जात धरम सब,
देवालय में होता है।  
मदिरालय या,
वैश्यालय में,
ये दीनधरम,
कहाँ होता है।  
              -अतुल सती #अक्स 

     
       

गुरुवार, 6 जुलाई 2017

कहानी पहाड़ी वाले बाबा की



आओ तुम्हे सुनाऊँ एक कहानी,
पहाड़ी वाले बाबा की कहानी। 
ऊँचे ऊँचे पहाड़ों में रहने वाला था वो,
अब रहता था ऊँचे ऊँचे मकानों में,
विकास की नदी में बह गया था वो,
पहाड़ी से कबका मैदानी बन गया था वो। 
मैदान की भाग दौड़ लूट गयी उसकी जवानी। 
बस यहीं से शुरू होती है हमारी कहानी।  

वो बूढ़ा अकेले अकेले ही,    
रोज इकठ्ठा करता मिट्टी, एक जगह,
बनाता टीला उनका,
सजाता घास और टहनिओं से उन्हें। 
देसिओं के बीच का वो पहाड़ी,
बल ठैरा वो एकदम अनाड़ी। 
नौकरी की बाढ़ में बगा था वो,
खुद की ही बनायी  हुई,
मजबूरी के हाथों, गया ठगा था वो। 
कहने को उसका नॉएडा में टॉप फ्लोर था,
पन्द्रवीं मंजिल में ,
जन किसी डांडा के टुख्खू का एक छोर था। 

अपने वगत जो सही लगा किया उसने,
अपने माँबाप छोड़े तरक्की को,
और आज उसका बेटा तरक्की कर गया ,
अपनी ईजा को भी अपने दगड़ ले गया, 
बाल बच्चों दगड़ी विदेश बस गया। 

वो अपने आखिरी दिन उन मिट्टी के टीलों पर,
जिन्हे वो अपना पहाड़ कहता था,
अपना घर कहता था,
उन्ही टीलों पर वो बैठ वो सबको अपनी कहानी सुनाता।
बच्चों को बुलाता और सुनाता,  

"वो बताता कि वो एक पहाड़ी था कभी,
अपनी पहचान खो कर,
उसे वहीँ पहाड़ों में दफना कर,
यहाँ मैदान में आया था। 
पर यहाँ उसके उस त्याग को कोई समझा ही नहीं,
यहाँ सभी तो ,
अपनी पहचान दफ़न कर आये थे अपने गाँव से,
कोई कार चलाता, तो कोई उसकी कार साफ़ करता। 
कोई सड़क बनाता तो कोई सड़क पर चलता,
कोई मजदूर तो मकान मालिक,
सभी अपनी पहचान दफ़न कर आये यहाँ,
सबकी थी एक ही कहानी,
पलायन पलायन पलायन की कहानी।   
सब आये अपना घर बार छोड़ छोड़ कर, 
और फिर यहाँ एक पहचान बनाई,
पहचान साहब की, नौकर की, गार्ड की,
कुक की, मालिक की, सर की,  
छोटू की जो कभी बड़ा नहीं होगा,
मैडम की, ऊँचे लोगों की, नीचे लोगों की,         
असल गँवा एक नकली पहचान बनाई, 
लेकिन इस पहचान में अपनी ज़िन्दगी गंवाई। 
पर, 
तुम बच्चों अपनी पहचान मत गँवाना,
तुम,
हाँ तुम मिलकर बच्चों,
स्मार्ट सिटी की जगह स्मार्ट गाँव बनाना।
ताकि किसी को अपनी पहचान न पड़े गँवाना।"

वो बूढ़ा ता-उम्र बस बातें करता रहा,
पहाड़ों की, पहाड़ों की वापसी की,
ये थी कहानी पहाड़ी वाले बाबा की,
कहानी अतुल नाम के शख़्स की, 
अतुल के जैसे हर एक 'अक्स' की। 
                             - अतुल सती अक्स  
 

बुधवार, 5 जुलाई 2017

पहाड़ी वाले बाबा और उसका अतीत।



आज एक कहानी सुनाता हूँ मैं आपको। एक कहानी एक दाना मनखी(बूढ़ा व्यक्ति) की। एक पहाड़ी वाले बाबा की। 
वो बाबा अक्सर बैठे रहते थे, नॉएडा के एक हाई -राईज  सोसाइटी के एक पार्क में, एक टीले नुमा जमीन पर। उन बूढ़े आदमी की उम्र रही होगी कुछ ८०-८५ साल। उस बड़ी सी पहाड़ सी ऊँची ऊँची बिल्डिंग की उस सोसाइटी में वो अकेले  ही रहते थे। उनकी पत्नी उनके एकलौते बेटे के साथ अमेरिका बस गयी थी। बेटा खूब तरक्की कर चुका था और अमेरिका में रहता था और उसकी माँ वहां रहती थी उसके साथ क्यूंकि वहां उसे अपने नाती नतीने भी तो संभालने थे। 

५-६  साल हो गए थे न तो उस बूढ़े से मिलने कभी कोई आया न ही वो कहीं गया। उसे सब पहाड़ी वाले बाबा कहते थे। वो बाबा हमेशा उन टीलों पर ही सारा दिन -शाम रहते थे। उस टीले पर कुछ कुछ घास उगी हुई थी। कहीं कहीं पर किसी पेड़ के पत्ते तोड़ कर पेड़ जैसा अकार देकर कुछ टहनियां गाड़ रखी थीं।कहीं कहीं पर उन "पहाड़ी बाबा" ने पानी जमा किया हुआ था।  कहीं कहीं उन्होंने नदी जैसी कुछ धार बना राखी थी। वो रोज वहां पानी लाते और पानी को एक छोटी नदी सी बहाते और वहां खड़े बच्चे खूब खुश हो कर उनकी इन हरकतों का मजा लेते। एकदम असली सा पहाड़ लगने वाले टीले को ही वो अपना घर कहते थे। वो कहते थे कि ये मेरा घर है, ये उत्तराखंड है।  मेरा उत्तराखंड।   
शाम को बाबा बच्चों को और उनके माता पिता को अक्सर अपने किस्से सुनाते थे  और वो किस्से कहानी थी उत्तराखंड की। उनके कहानी में, किस्सों में अक्सर एक युवा का जिक्र होता था, जो हमेशा ही अपने पहाड़ पर जाना चाहता था। अपने माता पिता के साथ रहना चाहता था लेकिन उसके उस उत्तराखंड में केवल शिक्षा थी पर रोजगार नहीं। उसे पलायन कर नॉएडा में आना पड़ा और फिर कभी वापस न जा पाया। बस बातें ही करता रहा वापस जाने की। उत्तरप्रदेश से उत्तराखंड अलग हुआ तो था पर वो युवा हमेशा उत्तरप्रदेश का ही बनकर रह गया। जैसा उसने अपने राज्य और अपने माँबाप के साथ किया, वही उसके बेटे ने उन बाबा के साथ किया। इसीलिए अब उन्होंने अपना पहाड़ इस टीले पर बसा लिया। उसमे नकली बौण(जंगल), धारा, गाड़, गदना, नदी बना कर, एक नकली उत्तराखंड बना कर, बस अपने आखिरी दिन गिन रहे थे।  
                             
वो बाबा अपने आपको NRU (नॉन रेजिडेंट ऑफ़ उत्तराखंड ) कहते थे और आज उनका बेटा NRI बन चुका था। पहाड़ी वाले बाबा जी बताते थे कि बचपन में उन्होंने उत्तराखंड आंदोलन में भाग भी लिया था और वो जब जवान थे तो वो हमेशा ही वापस जाना चाहते थे लेकिन उनकी तमाम मजबूरिओं और परिस्थिओं के कारण उनके कथनी और करनी में अंतर ही रहा। जिस मजबूरी को उन्होंने अपना ढाल बनाया था वो ही अब उनके बेटे की ढाल है। 

शायद ये ही जीवन का चक्र है। 
बाबा का नाम पूछा तो बोले कभी लोग उन्हें "अक्स" कहते थे।        
                                   - अतुल सती 'अक्स'