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रविवार, 31 मई 2015

लघु कथा 7: 'तमाचा ' -अतुल सती 'अक्स'




 " अरे क्या है??? अंधे हो क्या? अनपढ गंवार कहीं के। कहाँ घुसे जा रहे हो भैया? यहाँ कहाँ जगह है?" एक सज्जन चिल्ला रहे थे मेट्रो में। हमेशा ही की तरह आज भी बहुत भीड़ थी। धक्का मुक्की कर के किसी तरह वो सज्जन "Seats reserved of Ladies" महिलाओं के आरक्षित सीट की ओर आकर खड़े हो गए। उम्र अधेड़ अवस्था में पहुँच चुकी थी। सर का चाँद चमक रहा था। ऐनक लगाये काफी ज्यादा पढे-लिखे व्यक्ति लग रहे थे। 

"अरे !!! ये तो राहुल जी हैं।" सुनीता बोली। 
"कौन राहुल जी?" मैंने भी उत्सुकतावश अपनी मित्र सुनीता से पूछ लिया।
"अरे वही राहुल जी!!! हमारे इलाके के काफी नामी गिरामी समाज सुधारक!!! अरे जो 'स्त्री दशा उत्थान' नाम की संस्था चलाते हैं। "
" मैं तो इनकी बहुत बड़ी फैन हूँ। इनका एक लेख पढा था - 'नारी और आज का समाज' उसमे इन्होने बताया था कि किस तरह से आज का समाज में नारी के साथ बदतमीजी होती है। परसों इनका इंटरव्यू भी देखा था जिसमे ये बता रहे थे की आजकल बस, मेट्रो और पब्लिक प्लेसेस में स्त्रिओं के साथ कितनी बदसलूकी होती है किस तरह से लोग बदतमीजी करते हैं। ऐसे लोगों को सबक सिखाना चहिये। बहुत इज्ज़त है इनकी इस शहर की स्त्रिओं में। बहुत मान सामान कमाया है राहुल जी ने!!!"
सुनीता ने ये सब एक ही सांस में कह दिया। पता चल रहा था की वो राहुल जी से बहुत प्रभावित थी। 

मैं भी मेट्रो में रोज ही सफ़र करता हूँ और ये सब देखता हूँ। खुशकिस्मती से आज मुझे सीट मिल गयी थी। अखबार को पड़ते पड़ते मेरा ध्यान बार बार ही राहुल जी की ओर जा रहा था। 
राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर काफी सारी भीड़ उतरी और चढ़ी,जिनमे काफी ज्यादा लड़कियां भी थी। वो सब की सब आरक्षित सीट के पास खड़ी हो गयीं। 
लेकिन मैंने गौर किया तो पाया की अभी कुछ देर पहले भीड़ पर चिल्ला रहे ये सज्जन, अब चुप चाप थे। जबकि इनके आसपास इतनी जगह थी कि ये कहीं और शिफ्ट हो जाते जिससे लड़किओं को दिक्कत नहीं होती, पर ये टस से मस नहीं हुए। मैंने सुनीता की और देखा और उसे बताया कि मैं क्या देख रहा हूँ के तभी एक जोरदार तमाचे की आवाज़ आई। 
"बदतमीज़!!! घर में माँ बहन नहीं हैं क्या? मेट्रो में लड़कियां ही छेड़ने के लिए चढ़ते हो क्या??" एक लड़की राहुल जी पर चिल्ला रहीं थी। राहुल जी का गाल लाल हो चुका था और वो अगले मेट्रो स्टेशन पर चुपचाप उतर गए। 
मैं और सुनीता एक दुसरे का मुहं ताकते रह गए। मन में बहुत सारे सवालों को गुंजायमान करता ये तमाचा अब तक सुनायी देता है जब भी मैं अखबार में, समाचार में तथाकथित पुरुषत्व की स्त्रीत्व के लिए पाशविक हरकतें सुनता हूँ। 

                                                                                   -अतुल सती 'अक्स'

शनिवार, 30 मई 2015

लघु कथा 6: बातें -अतुल सती 'अक्स'


 राहुल, शीतल के लिए उसके जन्मदिन पर फूलों का एक गुलदस्ता और एक तोहफा ले कर आया था और बाहर दरवाजे को खुला देख चुपचाप उसके कमरे की और बढ  रहा था, कि अचानक उसको शीतल की आवाज़ सुनायी दी
वो अपनी पक्की सहेली गुंजन से फोन पर बातें कर रही थी।    

"मैं राहुल से शादी नहीं कर सकती गुंजन !!!"

शीतल और गुंजन की ये बातें सुन कर राहुल के पाँव तले ज़मीन खिसक गयी, उसकी कुछ समझ मैं नहीं आ रहा था कि शीतल ये सब क्यूँ कह रही थी। उसने चुपचाप उनकी बातें सुनने का फैसला लिया।
राहुल के दिल की धड़कन बढती ही जा रही थी।  माथे पर बहुत खींचाव सा महसूस हो रहा था।  एक अनजानी सी  भावना जिसमे क्रोध, शंका और भय सम्मिलित था।
बहुत ध्यान से वो उनकी बातें सुन रहा था की आखिर पिछले पांच सालों से उसको प्रेम करने वाली लड़की अचानक ऐसा क्यूँ कह रही है? जबकि वो खुद अपनी और उसकी शादी की बात, दोनों की मर्ज़ी से अपने घर में कर आया है। और आज तक कभी शीतल ने शादी के खिलाफ कुछ नहीं कहा, तो फिर आज ऐसा क्यूँ कह रही है? उसके दिमाग में बवंडर सा चल रहा था की तभी उसने शीतल की आवाज़ सुनी।

" मेरी माँ ने मेरे लिए २० तौला सोना लिया है, १५ रेशमी साड़ी हैं, और एक कार का भी इंतज़ाम किया है मेरे पापा ने !!!. कुल मिला कर लगभग ६० लाख रूपये तक का दहेज़ मिलेगा मुझे!!!"
बहुत ख़ुशी सी झलक रही थी उसकी आवाज़ में.….
"लेकिन अगर मैं राहुल से शादी करुँगी तो ये सब तो गया यार हाथ से। वैसे भी  मैं अपने खानदान में इकलौती हूँ आजतक बड़े नाज़-ओ-प्यार से पाला है मुझे।  मैं उनकी इच्छा के खिलाफ नहीं जा सकती।"
"राहुल के पास है ही क्या??? न तो उसके पास कोई कार है न ही फ्लैट ??? न ही इतनी सैलरी की मेरे नाज़ नखरे उठा सके।  उससे शादी कर के मैं क्या पाउंगी??? उल्टा ये सब जो मुझे मिलना है ये सब भी गवाउंगी। गुंजन सिर्फ प्यार से ही घर नहीं चलता है, पैसा भी  चाहिए होता है, पैसा!!!"

"और जहाँ तक बात है राहुल की तो यार!!! I actually Love Him but cannot Marry Him......!!!"
ये बातें सुन कर राहुल फूलों का वो गुलदस्ता और वो तोहफा वहीँ दरवाजे पर रख कर, बिना बताये वहां से चला गया.… अपनी प्यार की नाकामी देख कर वो बहुत निराश था और उसने वो शहर ही छोड़ दिया और चला गया …… जाने कहाँ ??? किसी को नहीं पता ….
                                                                                                             
-अतुल सती 'अक्स'

शुक्रवार, 29 मई 2015

लघु कथा 5: उफ़!!! ये समाज को क्या हो गया है? कहाँ जा रहा है ये ? राम राम। --अतुल सती 'अक्स'

सन १९९० में एक दिन : मैं अपने घर को साग सब्जी ले कर आ रहा था कि अपने ही मोहल्ले के दो लड़कों को सिगरेट पीते देखा। राहुल खुद कुणाल को माँ बहन कि गाली दे कर कह रहा था, "अबे *&%^%^$^$$%^$, ये ले एक कश मार और ज़िन्दगी का मजा ले।"कुणाल डरते डरते कश मार रहा था। और छल्ले उड़ा रहा था। मुझे उसकी गाली देना अजीब नहीं लगा क्यूंकि अब तक तो मैंने मान लिया था कि ये तो समाज का हिस्सा है, दोस्ती में गाली चलती है। हर कोई देता है। लेकिन मन में मैंने बस इतना सोचा ' उफ़!!! ये समाज को क्या हो गया है? कहाँ जा रहा है ये ? राम राम।' और फिर मैं वहाँ से आगे बढ़ गया। आज पालक पनीर जो बनना था। बहुत भूख लगी थी।

सन २००० में एक दिन: 
मेरे ही पड़ोस कि छत पर खूब हल्ला गुल्ला हो रहा था।
राहुल और कुणाल और उनकी गर्ल फ्रेंड्स सिगरेट के धुएं में शराब के नशे में धुत्त थे। गालियां तो जैसे हेल्पिंग वर्ब बन गयी थीं। वो लोग विदेश से आए थे और लिव इन में थे। मैंने बड़े अचरज से उन्हें देखा, उस वक़्त उनका गाली देना, सिगरेट,शराब पीना तो अजीब नहीं लगा लेकिन लिव इन में रहना अजीब लगा।
और मैंने बस इतना सोचा ' उफ़!!! ये समाज को क्या हो गया है? कहाँ जा रहा है ये ? राम राम।" और दरवाजा बंद कर के सो गया। बहुत थका हुआ था न.

सन २०१० में एक दिन: 
अखबार, चोरी, लूट, हत्या, घाटालों, रेप कि घटनाओं से पटा पड़ा था, मैंने पढ़ा, देखा और कोई अचंभा नहीं हुआ। तब तक मैं इसे इतना सुन चुका था और समाज का हिस्सा मान चुका था। बस इतना कहा ' उफ़!!! ये समाज को क्या हो गया है? कहाँ जा रहा है ये ? राम राम।' और टीवी पर पिक्चर देखने लगा, मदर इंडिया आ रही थी बड़े दिनों बाद।

सन २०१३ में एक दिन: 
मन बहुत खराब था निर्भया कांड के बाद। आंदोलन को देखा टीवी पर,बहुत कुछ कहा लिखा। हालांकि अब तक बलात्कार की घटनाओं को बहुत ही कॉमन मान चुका था। पर वो कांड बहुत ही नया था और वीभत्स था। गैंग रेप और इतना बुरा। बहुत मन व्यथित था। बस एक ही बात सोचता था "उफ़!!! ये समाज को क्या हो गया है? कहाँ जा रहा है ये ? राम राम।"

सन २०१४ में एक दिन: 
अखबार में सोशल मीडिया में आये दिन एक के बाद एक कई निर्भया काण्ड सुनने को देखने को मिलते हैं। अपने ही मोहल्ले कि एक लड़की कि व्यथा जब अखबार में पड़ी तो मन बड़ा व्यथित हुआ। लेकिन अचम्भा नहीं हुआ। आदत पड़ गयी थी ना। मैंने बस इतना कहा ' उफ़!!! ये समाज को क्या हो गया है? कहाँ जा रहा है ये ? राम राम।" और चाय की चुस्की लेने लगा। आज चाय बहुत ही बढ़िया बनी थी इलायची वाली। 

                                                                                -अतुल सती 'अक्स'

गुरुवार, 28 मई 2015

लघु कथा 4 : क्रॉस्ड अँगुलियाँ: -अतुल सती 'अक्स'


"वाइफ स्वैपिंग ???" कह क्या रहे हो तुम ? तुम्हारा दिमाग ठिकाने पर तो है न? एक पल के लिए तुमने सोचा भी है कि तुम क्या कह रहे हो और उसके परिणाम क्या हैं?
अनुराधा लगभग चीख ही रही थी राहुल पर।
"डोंट बि सो डाउन मिडिल क्लास अनु, इसमें हर्ज़ ही क्या है? मेरे सारे दोस्त जो कि मेरे बिज़नेस पार्टनर्स हैं कुछ तो मेरे क्लाइंट भी हैं, सभी ये करते हैं। और आज कल तो ये सब हायर मिडिल क्लास में चलता ही है।"
"तुम तो जानती ही हो इन सब लोगों के बिना हमारा सरवाइव करना मुश्किल हो जायेगा। अमन  इस बार पार्टी को होस्ट कर रहे हैं, और मुझे स्पेशली बोला है इसमें पार्टिसिपेट करने को। पूरे ६० करोड़ की डील होनी है, क्या पता हमें ही वो डील मिल जाये। और वैसे भी ये सब तो मैं बोल रहा हूँ तुम्हे करने को, कौनसा तुम मुझे कोई धोखा दे रही हो या मैं तुम्हे? सब कुछ हमारी जानकारी में ही तो होगा। बाकी सब भी तो ये ही करते हैं। राकेश, अमन , अनिरुद्ध ये सब कैसे इतने आगे बढे?कभी सोचा है?"
राहुल एक ही सांस में अनुराधा को मानाने की,समझाने की कोशिश कर गया।              
राहुल और अनुराधा दोनों लगभग पांच साल से दाम्पत्य जीवन में थे। शादी की, जवानी की सारी खुमारी घर, गाड़ी, लोन में काफूर हो गयी थी।  दोनों का एक ही बिज़नेस था और वो भी कुछ ढीला ढाला ही चल रहा था। अनु जानती थी की अगर ये डील मिलती है तो हालात सुधर जायेंगे।  लेकिन किसी गैर मर्द के साथ सोना??? उसका मन गवारा नहीं कर रहा था?
राहुल के रोज के इमोशनल अत्याचार से परेशान हो कर या फिर उस डील की खातिर अनु मान गयी।  और इस संडे वो तय समय पर तय पांच सितारा होटल में पहुँच गए। वहां ये चारों युगल मिले। साथ साथ खाया-पिया, जाम पर जाम के दौर चले। महिलाओं ने भी बढ़ चढ़ कर मदिरापान किया।  डिस्को थेक में नाचे कूदे। और अब वो घड़ी आ ही गयी जिस घडी के लिए अनु घबरा रही थी।
...........
अगले दिन राहुल और अनु साथ साथ घर तो आये लेकिन नज़रें नहीं मिला पाये, न ही कोई बात ही हुई। चुप चाप रहे।  उस घर का सन्नाटा चीख चीख कर रिश्तों की हत्या की गवाही दे रहा था। तभी उस सन्नाटे तो तोड़ती हुई मोबाइल की घंटी बजी। राहुल ने पिक किया और उसकी आँखों में चमक आ गयी। राहुल और अनु को वो डील मिल गयी थी। राहुल ने जैसे ही ये बात अनु को बताई दोनों ख़ुशी के मारे नाचने लगे और गले लग कर ख़ुशी का इज़हार करने लगे।
अंततः किसी तरह से बात चीत शुरू हुई तो अनु बोली
"अमन जी बड़े भले आदमी हैं। और तुम्हे पता है वो  कवि भी हैं।  कल रात तो उन्होंने मुझे इतनी कवितायेँ सुनायी कि पूछो मत। और तुम तो जानते ही हो मुझे कवितायेँ कितनी पसंद हैं। उनकी कविता सुनते उल्टे कब सुबह हो गयी पता ही नहीं चला।"
"अरे यार मैं तो बहुत ही बुरा फँसा, मिसेज अमन को तो तुम जानती ही हो ज्ञान, धरम, ज्योतिष में ऐसी डूबी रहती हैं कि कोई होश ही नहीं रहता। पूरी रात मुझे अपनी भविष्वाणी की कहानी सुनाती रही। कभी मेरा भविष्य बताती तो कभी देश का।  उस औरत ने तो पागल ही कर दिया। बाई गॉड!!!"
राहुल जब ये सब बोल रहा था तो उसने अपनी अंगुलियां क्रॉस कर रखी थी। राहुल और अनु, दोनों ही जब भी झूठ बोलते हैं तो अपनी अँगुली क्रॉस करके ही बोलते हैं।
राहुल अपने कमरे की और जाने लगा तो पीछे से अनु बोली " राहुल मैं अभी भी वैसी ही हूँ जैसी पार्टी से पहले थी।  मुझे अमन ने हाथ भी नहीं लगाया। उस रात कुछ भी नहीं हुआ, कसम से ।"
राहुल बस अनु को निहारे जा रहा था और मुस्कुरा रहा था, के तभी उसकी नज़र अनु के पीछे दीवार पर लगे आईने पर गयी। अनु की अँगुलियाँ भी क्रॉस थीं।
                             -अतुल सती 'अक्स'

ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?


बहुत कम ज़िन्दगी मिली है जीने को,

और काम बहुत हैं करने को, 
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?
जिम्मेदारी का बोझ,
और अपने अस्तित्व की खोज,
नाते दारी, रिश्तेदारी उफ्फ,
दिखावे के लिए केवल प्यार,
मतलब के लिए यार,
इतनी निर्जीव जैसे कोई बुत, 
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?
मैं रंग नया भरना चाहता हूँ,
गीत नया गाना चाहता हूँ,
रिश्ता खुद से सच्चा,
बनाना चाहता हूँ,
दोगले समाज की बेड़िओं को,
गलाना चाहता हूँ,
पर फिर तू मुझे रोक लेती है,
दुहाई दे कर किसी न किसी की, 
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?
मैं तुझे अपने तरीके से,
अपना बना कर सजाना चाहता हूँ,
दूसरों की नकली ज़िन्दगी देख कर नहीं,
अपने से, अपने प्यार से,
तेरा श्रृंगार करना चाहता हूँ,
किसी किनारे नदी के बैठ कर,
कभी घंटो बतियाना तो,
कभी बस लम्बी ख़ामोशी चाहता हूँ,
बस तू और मैं,
कहीं बैठ के कुछ कहें,
कुछ सुनें एकदूजे की,
थोड़ा सुकून से रहे,
कभी तो कहीं तो मिल मुस्कुराके मुझे,
बैठे मेरे साथ, पर तू तो भागती ही जाती है,
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?

लघु कथा 3 : हैप्पी मदर्स डे !!! ----अतुल सती 'अक्स'


"चलो कम से कम साल में एक बार तो अपनी माँ को याद किया और 'आई लव यू मॉम !!!' कहती हुई स्टेटस से अपने FB को अपडेट किया। बहुत होता है जी साल में एक बार अपनी माँ को याद करना।
अब शर्मा जी को ही देखो कितना अच्छा स्टेटस अपडेट किया है फेसबुक पर, के 'भगवान हर जगह नहीं हो सकते इसीलिए तो माँ बनाई'।
आज मदर्स डे पर चीफ गेस्ट थे हमारी सोसाइटी में। बहुत ही अच्छा कहा उन्होंने माँ के बारे में, लोगों के तो आंसू आगये थे।" 
"कौन शर्मा जी?" मैंने बड़ी ही असमंजसता भरी नज़रों से पुछा। 
" अरे वही शर्मा जी यार!!! जिनके घर का नाम "मातृ कृपा" है"" कौन राम कुमार शर्मा जी?" मैंने पूछा। 
"अरे यार!!! श्रवण कुमार शर्मा जी, अरे जिनका केस चल रहा है अपनी माँ से कुछ जायदाद पर। भूल गए क्या?""अच्छा वो जिन्होंने अपनी माँ को वृद्धाश्रम में रखा हुआ है। एक दिन पागल कह कर निकाल दिया था अपने घर से।"मुझे याद आ गया था।" हाँ वही ठीक पहचाना। तुम्हारी याददाश्त तो कमाल की है। बस इन शर्मा जी की ही कुछ खराब लगती है मुझे। क्या कहते हो? वैसे हैप्पी मदर्स डे !!! "


                                                                                  -अतुल सती 'अक्स'

बुधवार, 27 मई 2015

उत्तराखंडी ई-पत्रिका: गढ़वाली का युवा , उत्साही कवि अतुल सती 'अक्स' का दग...

उत्तराखंडी ई-पत्रिका: गढ़वाली का युवा , उत्साही कवि अतुल सती 'अक्स' का दग...: भीष्म कुकरेती; आपना अब तक गढवाळी मा क्या क्या लेख अर कथगा कविता लेखी होला, आपक संक्षिप्त जीवन परिचय----- प्रणाम भीष्म कुकरेती जी, मेर...

लघु कथा 2: मानव सभ्यताएं और उसकी मान्यताएं

---------मानव सभ्यताएं और उसकी मान्यताएं----------

प्रथम घटना:(कुछ साल पहले, अार्यवृत देश के एक छोटे से गाँव में)
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एक गाँव था जहाँ १० लोग रहते थे। उस गाँव में एक पेड़ था। उन १० में से १ व्यक्ति ने पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की तो अचानक से बिजली कड़की और बहुत तेज़ बारिश होने लगी। उनके जीवन में पहली बार बारिश हो रही थी।  बारिश के दौरान ही बाकी ९ लोगों ने उस व्यक्ति को मारना शुरू कर दिया जो पेड़ पर चढ़ा था। और कुछ देर बाद बारिश रुक गयी। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि हुआ क्या? क्यों बारिश हुई? क्यों रुक गयी? उस आदमी को इसीलिए मार क्यूंकि सिर्फ वही वो काम कर रहा था जो कि बाकी ९ लोगों से अलग था।

द्वितीय घटना:
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अब एक दिन एक और व्यक्ति ने उस पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की। उसको चढ़ता देख प्रथम प्रयास करने वाले व्यक्ति ने जो कि तब से खुन्नस खाया हुआ था उसे धर दबोचा और मारने लगा उसकी देखा देखी बाकी लोग भी उसको मारने लगे।  उन्हें डर था की कहीं इस बार भी बिजली न कड़के और कहीं बारिश ना हो।

तृतीय- दशम घटना:
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इस तरह से हर बार जब भी कोई पेड़ पर चढ़ने की कोशिह्स करता तो सब के सब मिल कर पेड़ पर चढ़ने वाले को धर दबोचते और बहुत ही बुरी तरह पिटाई करते। मजेदार बात ये थी कि हर कोई एक बार प्रयास जरूर करता था पेड़ पर चढ़ने की। लेकिन मार भी जरूर खाता था। उनका ये मानना था कि पेड़ पर चढ़ने से बिजली कड़कती है और बारिश होती है।

एकादश घटना:
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अब एक व्यक्ति वो गाँव छोड़ के चला गया लेकिन एक नया व्यक्ति किसी और गाँव से उस व्यक्ति की जगह आया।  उसके लिए ये गाँव एकदम नया था।  उसने वो पेड़ देखा और उस पर चढ़ने ज्यूँ ही कोशिश की उन ९ बचे हुए लोगों ने उसे पीट डाला।
एक दिन एक और पुराना आदमी गाँव छोड़ गया और उसकी जगह फिर से एक नया आदमी गाँव में आया।  उसने भी पेड़ पर चढ़ने का प्रयत्न किया और उससे पहले आये नए व्यक्ति समेत बाकी सबने उसे भी धुन दिया।

ये सिलसिला चलता रहा और एक दिन ऐसा आया जब सारे पुराने लोग गाँव छोड़ कर जा चुके थे और उनकी जगह सब के सब नए लोग थे। ये सब नए लोग हर उस व्यक्ति को पीटते थे जो पेड़ पर चढ़ने का प्रयास करता था बावजूद इसके कि ये लोग कभी भी उस बारिश का हिस्सा नहीं थे जो कि पहली बार आयी थी।
पहले १० लोगों ने कभी भी इन नए १० लोगों में से किसी को कभी भी नहीं बताया कि वो क्यों पेड़ में चढ़ने वाले व्यक्ति को मारते थे और न ही इन १० लोगों ने कभी इस बात को जानने का प्रयास ही किया कि वो भी क्यों मारते थे एक दुसरे को।

आज उस गाँव में २ हज़ार से ज्यादा लोग हैं और सबके सब किसी को भी उस पेड़ पर नहीं चढ़ने देते हैं और सबके सब मार खाए हुए हैं लेकिन कारण किसी को नहीं मालूम कि क्यों? बस भेद चाल पर देखा देखि पीट डालते थे उस व्यक्ति को जो पेड़ पर चढ़ने की कोशिह्स करता था।

बस मान्यताएं हैं धारणाएं हैं।  कुछ ऐसा ही है मानव। अपनी दुनिया वो जैसा समझे वैसा ही बनाता है।  आज उस गाँव का वो पेड़ तो गिर गया। लेकिन उसके बगल में उगे उस जंगल में जितने भी पेड़ हैं उस गाँव के लोग उन पेड़ों पर भी कभी नहीं चढ़ते।
क्यों???????कारण किसी को भी नहीं पता।
क्या आपको पता है????
       

-अतुल सती 'अक्स'


नोट:- (अमेरिका में बंदरों पर हुए एक प्रयोग जिससे पता चला कि हम इंसान कैसे कुछ मान्यताओं को मानते हैं, से प्रेरित)

लघु कथा 1: "रुई का बोझ" -अतुल सती 'अक्स'


"हमने कह दिया तो कह दिया, हम तुम्हारे साथ दिल्ली शिफ्ट नहीं हो सकते। अब इस उम्र में कहाँ हमसे वहां एडजस्ट हो पायेगा?"
अवधेश जी की कांपती आवाज़ में रुआसापन साफ़ झलक रहा था। क्रोध और मजबूरी की मिश्रित भावना उनकी आवाज़ में घुली हुई थी।    

"हमने अपनी सारी ज़िन्दगी यहीं, इसी शहर में गुजारी है। यहाँ हम सबको जानते हैं, सब हमको जानते हैं। वहां दिल्ली में तो हम किसी को जानते भी नहीं …."
कुछ देर चुप रहने के बाद अवधेश जी अपने बेटे राकेश से  बोले "तुम और बहू तो ऑफिस चले जाओगे, हम तो वहां भी अकेले ही रह जायेंगे।"

कमरे में एकदम सन्नाटा पसर गया था। बेटा राकेश, बहू  सुनंदा एकदम खामोश हो गए थे।  ये दोनों के दोनों अवधेश जी के रिटाएर होने के बाद उन्हें और पत्नी सीता को लेने आये थे।    

"वैसे भी पिछले १५ सालों से हम दोनों अकेले ही तो थे। पहले तुम पढ़ाई करने घर से बाहर चले गए, फिर नौकरी के लिए।  और अब तो शादी कर के तुम वहीँ बस गए हो। जब से तुमने अपने लिए  फ्लैट और कार ली है, और जब से तुम माँ बाप बने हो, तभी से तुम दोनों मेरे रिटाएर होने के बाद हम दोनों को अपने साथ रखने और पुरखों की जमीन और घर को  बेचने की जिद्द लिए बैठे हो।"  बहुत बड़ी बात बोल दी थी अवधेश जी ने।  राकेश और सुनंदा नज़रें झुकाए खड़े थे।

"नहीं पिताजी!!! आप और माँ ये मत समझना की हम आपको सिर्फ मुन्ना की देख रेख के लिए ले जा रहे हैं और यहाँ की जमीन और ये घर बेच कर लोन चुकाना चाहते हैं, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। बल्कि हम दोनों को तो आपकी बहुत चिंता होती है, आप लोग हमारे आँखों के सामने रहेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।"   - राकेश ने घबरहट के साथ बात को सँभालने की कोशिश की।

माँ और पिता जी की आँखों में दुःख और गुस्से से लबरेज़ सवालों को देख कर राकेश जान गया था कि उसने 'चोर की दाढ़ी में तिनका' वाली बात कर दी है।

"बेटा !!! माँ बाप जब तक समर्थ होते हैं और कमा रहे होते हैं हैं तब तक वो सूखी रुई की तरह लगते हैं, मुलायम,गद्देदार और हल्के। लेकिन जब वो बूड़े, असमर्थ और रिटाएर हो जाते हैं तो वो ही रुई, भीगी हुई लगती है, चिपचिपी,गीली और बहुत भारी। ऐसी रुई का बोझ तुमसे न उठाया जाएगा …. तुमसे न उठाया जाएगा"
                                                                       -अतुल सती 'अक्स' 

माँ बाप: आजकल

निकल आते हैं जब पर परिंदों के, तो वो तो उड़ जाते हैं,
पाल पोस कर बड़ा करने वाले अक्सर तन्हा रह जाते हैं। 

बड़ी शिद्दत से, बड़ी उम्मीद से बनाते हैं वो जो घोंसला,
 बच्चे बड़े होते हैं, तो वो घर अजीब वीराने में ढल जाते हैं।

खून पसीने से जो बनाते हैं, बसाते हैं, सजाते है, घर को,
              वो जब बुजुर्ग हो जाते हैं तब वो घर के कोने बन जाते हैं।          

कभी फैला रहता था खुशिओं का आँचल पूरे ही घर में,
बच्चे बड़े होते हैं तो घर में ही कुछ और घर बन जाते हैं। 

बच्चों को सहारा देने को, हमेशा हाथ दिया,छड़ी नहीं दी,
      वो हाथ बूढ़े होते हैं,तो सब सहारे छड़ी तक ही थम जाते हैं     
   
अपने बच्चों को पाला, अब बच्चों के बच्चों को पालते हैं,
माँ बाप जब दादा दादी होते हैं 'अक्स',नौकर बन जाते हैं।
                      -अतुल सती 'अक्स' 

मंगलवार, 5 मई 2015

तुम और बुराँश का फूल


तुमको जब भी देखता हूँ तो कुछ याद आता है,    
याद आता है मेरे गाँव में खिलने वाला वो एक फूल,
जो एक दम तेरे होंठों के जैसा कोमल है,
जिसे लोग कहते हैं बुराँस। 
जैसी ठंडी जगह पर ये उगता है,
कुछ वैसी ही ठंडक मिलती है,
तुमसे जब भी मिलता हूँ मैं। 
बुराँस के वन की ऊँचाई तक,
तुम मेरे प्रेम को उड़ा के ले चलती हो,
और सबसे ऊंचे बुराँस के दरख्त पर,
उसकी सबसे ऊंची शाख पर, 
जो अनछुआ सा फूल,    
जो तेरी ही तरह मुस्काता है,
वही बुराँश का फूल मुझे लगती हो,
और जब मैं भटक रहा होता हूँ,
यूँ ही तनहा पहाड़ों में,
तेरी याद लिए हुए,
तब,
हाँ तब मेरी प्रेयसी,      
वो बुराँश मुझे तेरी याद दिलाता है। 
तेरे होंठो के रस सा रसीला,
मीठा तो कुछ खट्टा,
चखता हूँ जब इसकी पँखुडिओं को,
तो ताजा हो जाता है वो पहला एहसास,
के जब तुमने लबों से लबों को छुआ था,
और मेरे इज़हार-ए-इश्क पर,
हौले से कानों में मेरे,
अपना इकरार-ए-मुहब्बत का 'हाँ'  कहा था। 
भीनी भीनी खुशबू बुराँश के जंगल की,
एहसास करा जाती है तेरा इन पहाड़ों में,
और खो जाता हूँ मैं फिर से यादों में,
जब पहली बार तुमने मुझे छुआ था,               
और मेरे इज़हार-ए-इश्क पर,
हौले से कानों में मेरे,
अपना इकरार-ए-मुहब्बत का 'हाँ'  कहा था।