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गुरुवार, 28 मई 2015

ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?


बहुत कम ज़िन्दगी मिली है जीने को,

और काम बहुत हैं करने को, 
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?
जिम्मेदारी का बोझ,
और अपने अस्तित्व की खोज,
नाते दारी, रिश्तेदारी उफ्फ,
दिखावे के लिए केवल प्यार,
मतलब के लिए यार,
इतनी निर्जीव जैसे कोई बुत, 
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?
मैं रंग नया भरना चाहता हूँ,
गीत नया गाना चाहता हूँ,
रिश्ता खुद से सच्चा,
बनाना चाहता हूँ,
दोगले समाज की बेड़िओं को,
गलाना चाहता हूँ,
पर फिर तू मुझे रोक लेती है,
दुहाई दे कर किसी न किसी की, 
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?
मैं तुझे अपने तरीके से,
अपना बना कर सजाना चाहता हूँ,
दूसरों की नकली ज़िन्दगी देख कर नहीं,
अपने से, अपने प्यार से,
तेरा श्रृंगार करना चाहता हूँ,
किसी किनारे नदी के बैठ कर,
कभी घंटो बतियाना तो,
कभी बस लम्बी ख़ामोशी चाहता हूँ,
बस तू और मैं,
कहीं बैठ के कुछ कहें,
कुछ सुनें एकदूजे की,
थोड़ा सुकून से रहे,
कभी तो कहीं तो मिल मुस्कुराके मुझे,
बैठे मेरे साथ, पर तू तो भागती ही जाती है,
क्यों ज़िन्दगी ऐसी क्यों है तू?

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