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बुधवार, 20 दिसंबर 2017

ओह मी ! या मैं ! हे मैं ! और निओ एंडरसन

एक दिन गॉड, अल्लाह और ईश्वर में ही जंग छिड़ गयी कि उनके अनुयायी, उनकी असली पहचान को आगे बढ़ा रहे हैं, और वो ये साबित कर सकते हैं, क्यूंकि उनके न्यूज़ चैनल में बताया जाता है कि उनके फॉलोवर एकदम सही काम कर रहे हैं और महामहिम सर्वोच्च ताकत के प्रतिनिधि के रूप में गॉड, अल्लाह और ईश्वर बहुत ही सही धर्म चला रहे हैं। (वो न्यूज़ चैनल और पत्रकार निष्पक्ष होते हैं ठीक हमारे न्यूज़ चैनल और पत्रकारों के ही तरह)

सबके सब अपनी अपनी दलीलें दे रहे थे, अपने अपने शिक्षाओं का बढ़ा चढ़ा कर गुणगान कर रहे थे लेकिन गौर से सुना तो पाया कि वो सब एक ही बात बोल रहे थे। और फिर उन्होंने पाया कि असल में वो कुछ बोल ही  नहीं रहे थे और न ही उन्होंने कभी कुछ बोला, न किसी से मिले कभी और न ही कभी कोई धर्म नाम की चीज़ का आविष्कार किया। वो सब के सब न्यूज़ चैनल वालों की बातों में आ गये थे। 

अब वो तीनों नीचे आये इस धरती पर और अपने अपने अनुयायों को पहली बार दर्शन दिए, बात करी और सो कॉल्ड रिलिजन या धर्म या सम्रदाय के करता-धर्ताओं को सुना और समझा। तीनों ने सिर्फ एक बात बोली अपने अनुयायों को कि "ये सब तो गलत है, ऐसा न तो मैंने कभी कहा न ही ऐसा मैं दिखता हूँ और न ही मैं तुम्हारे पापों से कोई सरोकार रखता हूँ न पुण्यों से। तुम जो भी कर रहे हो वो झूठ और फरेब से लबरेज़ है।" 
इतना सुनते ही सो कॉल्ड अनुयायी अपनी अपनी सोर्डस, शमशीरें और तलवारें ले कर उनके पीछे भागे मारने को और बोले  "हमको गलत बोलता है, हमको गॉड प्रॉमिस, अल्लाह हु अकबर, ईश्वर की शपथ है तुमको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे !!!"          
पसीने से नहा गए तीनों और तब  भागते हुए इस धरा से गॉड बोले " ओह मी !!!"  अल्लाह बोले  " या मैं !!!" और ईश्वर बोले "हे मैं !!! 
ये इंसानों ने किसे भगवान बनाया है? किसे धर्म की संज्ञा दी है? कौन हैं ये?"
 
और ये कहते हुए तीनों एक जगह रुके और गौर से देखा कि वहां तीन शीशे थे और तीनों शीशों में तीन अक्स दिख रहे थे पर वास्तव में वहां कोई नहीं नहीं था। असल में वो एक मैट्रिक्स में फंसे हुए थे जहाँ उन्हें लगता था कि वो हैं, एक्सिस्ट करते हैं फिजिकली, जबकि उस मैट्रिक्स को इन्सानी दिमाग चला रहा था। और ये तीनों कोई निओ तो थे नहीं कि मैट्रिक्स को तोड़ देते। निओ याद है न?  "निओ एंडरसन" ?
                                      - अतुल सती 'अक्स'                          

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

नकलाकार कलाकार मेंढक

एक कहानी सुनाता हूँ बल जरा टक्क लगेकी सुनना वा। 

भोत पुरानी बथ है एक कुआँ था।  वहाँ पर बहुत ही सुन्दर सुन्दर मेंढक रहते थे और उस ज़माने में उनकी जबान "टर्र-टर्र" नहीं थी। उस टाइम पर वो मधुर सुमधुर आवाज़ के धनी थे। एक से एक टैलेंटेड थे।   
वो एकदम मस्त मौला थे और उसी कुएं से दिखने वाली रौशनी को आकाश समझते थे। उनकी सुबह और शाम मतलब दिन बहुत ही छोटे थे रात लम्बी थी बहुत। उन्हें तो ये भी नहीं पता था कि उस कुएँ के बाहर भी कोई दुनिया है, स्वछंद प्रकृति का एहसास है। वहां रहा भी जा सकता है और जिया भी जा सकता है।

अब कुछ बहुत ही सुरीले मेंढकों ने बहुत ही सूंदर तान लगाई।  अपनी मेहनत और साधना से वो उस कुँए से अलग अलग तरीकों से, साधनाओं से, किन्तु अपने खुद के प्रयासों से बाहर निकल गए। उस कुएँ से बाहर निकलने में उनकी अथक मेहनत थी। 
कुछ मेंढक दिन दोपहरी में निकल पाए पर एक मेंढक जिसकी आवाज़  बहुत सुरीली थी और जो सबसे ज्यादा चर्चित और यशश्वी था उसने जाते हुए एक राग आलापा। वो राग उसका खुद का बनाया हुआ था और वो था "टर्र टर्र" राग।

जिस वक़्त वो मेंढक निकल रहा था कुँए से ठीक उसी वक़्त पूनम का चाँद आसमान में उस कुएँ के ऊपर छाया हुआ था। टर्र टर्र अलाप करता हुआ जब वो मेंढक बाहर निकला जिसके चारों ओर धवल चाँद था और जिससे कुएं के तल से देखने पर वो घटना दैवीय सी लग रही थी। वो अकेला मेंढक था जो रात को बाहर निकल पाया। 

ये कहानी कथा का बाद क्या हुए वैते सुना अब।   

वैका बाद कुएँ के तली पर रहने वाले मेंढकों को जाने क्या हुआ बल सभी केवल "टर्र टर्र" राग का अलाप करते रहे और उस पहले मेंढक को कॉपी या कहिये उसके गीतों को कवर करने लगे। अपने राग अपने गानों की जगह बस "टर्र टर्र"  शॉर्टकट।   
अफ़सोस वो मेंढक बहुत से राग गा सकते थे अलग अलग और बहुत ही सुन्दर गीतों को रच सकते थे पर अफ़सोस आज भी वो मेंढक उसी कुएँ में हैं  बस अलग अलग तरीकों से "टर्र टर्र" करते हैं सब के सब।  जिसकी वजह से वो पहला "टर्र टर्र" गीत जो सुरीला था आज बस एक शोर बन कर रह गया है।  जब उन मेंढकों को बोला गया बल कुछ अफरु भी गाओ कब तक दूसरों के गानों को गाओगे? दुसरे की मेहनत को अपना बनाओगे? तो जानते हो उन मेंढकों ने टर्र टर्राते हुए क्या कहा?

"भैजी इसे बल टर्र-टर्र-टर्रवर कहते हैं, टर्र-टर्र-टर्रम्प्रोवाईजेशन कहते हैं इसे। हम बल फुन्दिआ मेंढक हैं आजकल की जनरेशन। तुम्हारा बल मैशप-टर्रशप करदेंगे। "

अब बोलो बल नक़ल नक़ल मार कर नकलाकार हैं ये और कलाकार कहते हैं खुद को बल। कण लगी बल ये कहानी बताना जरा।                                   
                          - अतुल सती 'अक्स'

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

अभी भी

सुन !!!
सुन ना !!!
बहुत वक़्त हुआ,
बहुत वक़्त से चाहा कि कहूँ,
कि  
बहुत सोचता हूँ मैं,
बहुत लिखता भी हूँ,
पर,
तमाम बातें सोचने पर भी,
      
आख़िरी एक ख़्याल है,  
अभी भी तू मेरे ख्यालों में। 

आज भी,
सच में,
दर-ब-दर भटकता हूँ,
अपने सवालों को लिए,
 पर,
तमाम जवाब सुनकर भी,

         
आखिरी जवाब है,
अभी भी तू मेरे सवालों में। 


बहुत,
बहुत खोजता हूँ तुझे,
तेरी खुशबू को,
लड़ता हूँ हवाओं से,
के क्यों???
लेकर नहीं आती खुशबू तेरी,


आखिरी महक-ए-इश्क़ है,
अभी भी तू मेरे रूमालों में।     
 
 @https://www.facebook.com/AtulSati.aks/

सोमवार, 27 नवंबर 2017

एक कहानी इंसानियत और धरती की

मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।


मैं कैसे तुमको प्यार करूँ?

कैसे मैं तुम्हारा दुलार करूँ?

अश्कों सी मायूस राख हूँ  मैं ,

कोई आग न अब मेरे अंदर है।


मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।


बीज जो मुझ में रोपा गया,

वो रूठ गया, वो सूख गया,

बस एक खाली गुब्बार हूँ  मैं,

कोई आब न अब मेरे अंदर है।


मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।

        -अक्स 


http://atulsati.blogspot.com/2017/11/blog-post_27.html


शनिवार, 18 नवंबर 2017

मि अर सट्टी

मि सट्टी जन पड्युं ही रे गी उर्खुली मा,
कुटदू देखदू रे अफ्फु ते,
वक़्ता का मुसलोंन सटा सट।
जब भी जीणो मन करि,
जब भी मस्ती मा रेणौ मन करि,
त पैली बवल्दु छौ कि
बाद मा जीला, हँसला, खेलला, नचला, गाला,
अभी उम्र नि च,
फेर अब जब सब मिली त,
बोलदू छौं कि
अब उम्र नि रै,
त यन च दाज्यो भुल्ला, भुल्ली बैणी, बोड़ा बोड़ी, काका काकी,
जू भी यु वक़्त मिलणु च,
जी लिया जी भर की,
अभी उम्र नि, भोल उम्र नि राळी,
ये वास्ता जी लिया फटाफट।
निथर एक दिन तुम भी बोलला अक्सा जन,
बल,
मि सट्टी जन पड्युं ही रे गी उर्खुली मा,
कुटदू देखदू रे अफ्फु ते,
वक़्ता का मुसलोंन सटा सट।
   - अतुल सती अक्स

सोमवार, 13 नवंबर 2017

प्रद्युम्न केस और दबाव!!!

प्रद्युम्न केस में जिस १६ साल के लड़के को आरोपी बनाया जा रहा है और जो कारण निकल के सामने आ रहे हैं वो चिंताजनक हैं। सिर्फ स्कूल के एग्जाम और पैरेंट टीचर मीटिंग कैंसिल करवाने के लिए किसी की हत्या करने जैसा ख्याल से ज्यादा चिंताजनक उसके पीछे के कारण हैं।

हो सकता है कि ये सिर्फ एक मिथ्या कथा हो, या फिर उस बालक की कोई व्यक्तिगत समस्या ही हो लेकिन ये बात एक चिंताजनक समस्या की ओर इशारा तो करती ही है। 
और वो है,
दबाव!!!    
कितना ज्यादा दबाव है आजकल के स्कूल में,समाज में। स्टेटस, एजुकेशन, मार्क्स, रेपुटेशन, आगे निकलने की होड़, पीछे रह जाने का डर, बचपन का ख़तम हो जाना ये ही सब तो जिम्मेदार हैं इस दबाव के पीछे।
खुद निकम्मे रहे मातापिता को बच्चा चाहिए आइंस्टीन और साथ में अमिताभ और सचिन का मिश्रण। जब गाये तो सोनू शान किशोर रफ़ी लता आशा, जब नाचे तो ऋतिक, खाना पकाये तो संजीव कपूर सब कुछ एक ही में हो। 
आल इन वन। 
आजकल छोटे छोटे बच्चे डिप्रेशन में हैं, आप देखते ही होंगे वो कहते हैं कि वो बोर हो रहे हैं, 
अखबार उठा कर पढ़िए कितने ही केस हैं जहाँ रेप कर रहे हैं नाबालिग, नशा करना उनकी जीवन शैली है,  
लेकिन हमें क्या? बच्चा खराब तो स्कूल जिम्मेदार, समाज जिम्मेदार हम थोड़े न?

क्यों?
             
हमारी दीमक लगी शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक ढाँचा जहाँ सिर्फ अकैडमिक्स में ध्यान दिया जाता है और उसमे भी केवल फर्स्ट आना है, बाकी के लिए कोई जगह नहीं, 
वहां, जहाँ मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा का कोई स्थान नहीं वहाँ ये ही तो होगा। 

हमारे शुक्राणु जो अपने ही जैसे करोड़ों,अरबों शुक्राणुओं से आगे रेस जीते उन्हें और जीते हुए अन्य शुक्रणओं से भी आगे दौड़ना ही होगा। जो हम कभी न कर पाए उसे वो करना ही होगा, उसे दबना ही होगा इस प्रेशर में। नहीं तो वो चार लोग क्या कहेँगे?
हमें एक ऐसा पेड़ चाहिए जिसमें हर तरह के फल लगें और हमें उसका ख़याल भी न रखना पड़े। आप देखिये अपने आसपास के बच्चों को, अपने बच्चों को, कितने चिड़चिड़े हैं? 
उनको भी समझ में आता है कि केवल और केवल फर्स्ट आना है, अगर कुछ ऊँच नीच हुई तो उसके माँ बाप को शर्मिंदा होना पड़ेगा।  लोग उसे एज अ प्रोडक्ट फेल कर देंगे, रिजेक्ट कर देंगे, और तब न जाने वो या तो खुद को या फिर किसी और की हत्या करे एक और पैरेंट टीचर मीटिंग कैंसिल करवाने को, स्कूल बंद करवाने को।             
और अगर ऐसा हुआ तब अभी एक प्रद्युम्न की बलि हुई है आगे न जाने कितने और होंगे।         

ब्लॉग: https://atulsati.blogspot.in/2017/11/blog-post_13.html       

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

तुम्हे तो पता ही था सब

तुम्हे तो पता ही है सब,    
ये सुनहरा धागा मेरा बुना है,   
सुन्दर लगता है न?
मेरा ये रेशमी धागा?
पर, 
असल में,
मैं उलझा हूँ अपने ही ख्यालों में,
उलझता उलझाता, सुलझता सुलझाता,   
और,
खुद को हमेशा ही पाता हूँ जकड़ा हुआ,
अपने ही महीन रेशमी धागे से,
तुम्हे तो पता ही है सब।    

मैं नहीं तोड़ पा रहा हूँ इस बँधन को,
फँसा हूँ पर जीने को साँस भी तो लेनी है।  
और यहाँ,
हर आती जाती साँसों के स्पंदन से,
निकल रहा है ये रेशमी बँधन मुझसे,
लेकिन, 
मुठ्ठी भर ही साँसों का पिटारा है मेरे हिस्से में, 
तुम्हे तो पता ही है सब।    

साँसे मेरी हिस्से की जितनी भी मैं खर्च करता हूँ,
उतना ही इस धागे को बुनता हूँ,    
तुम्हे जो पसंद है मेरा ये धागा बुनना, 
तुम भी जानते हो और मुझे भी पता है,
ये धागा मेरे काम का नहीं,
ये तुम्हारे लिए है कीमती,
मेरा तो ये एक बंधन है मेरे गले में,
मेरी ख़त्म होती साँसों की परिणीति,
मेरे साँसों की चिता की ठंडी बुझी हुई राख,
तुम्हे तो पता ही है सब।    
     
मुझे तुमने ही तो सिखाया था रेशम बुनना,
मुझे भी कहाँ पता था कि ये शौक जानलेवा होगा,
अब दम घुट रहा है तो बता रहा हूँ मैं,
शायद कल बता भी न पाऊँ,
मेरी साँसे मेरे जीने  के लिए कहाँ थीं,
बल्कि ये तो मेरी मौत तक,
तुम्हारे लिए बस रेशम बुनने तक थीं,
मुझे  पता है,
मेरे मरने पर तुम इसे हमारा प्रेम कहोगे,
हमारा समर्पण कहोगे, 
कहोगे के, आखिरी साँस तक तुम्हारे लिए रेशम बुना मैंने,
पर,
मुझे पसंद नहीं था कभी भी रेशम बुनना,
मैं तो बस देखना चाहता था शहतूत के फूलों को,
कलिओं को, पत्तों को, शाखों को, फलों को, 
शहतूत  ही नहीं बल्कि हर घास, हर पौधे, सूखे हुए दरख्तों को,  
महसूस करना चाहता था हवा को, पानी को, तुमको, प्रेम को,
मैं तो बस जीना चाहता था, सिर्फ जीना,
अपने हिस्से की साँसों से कुछ पल का जीवन चाहता था,
खैर !!!
तुम जानते थे सब,सब कुछ,
मैंने कहा था तुमसे,
मुझे जाने दो, जीने दो,  
तुम्हारा  वादा था मुझसे कि  मुझे जाने दोगे,जीने दोगे,
मैं भी जानता हूँ तुमने क्या किया,
तुम्हे तो पता ही है सब,
कि,
तुम्हे तो पता ही था सब। 
                 - अक्स      
  
          
         

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

गज़ब प्यार

मेरे घर को जला कर, तुम तो आग को हवा दे रहे हो,   
फूंक मारने का ढोंग कर, कहते हो आग बुझा रहे हो। 
 
पानी की शक्ल में,  मिटटी का तेल डाल डाल कर,
तुम आग बुझा रहे हो या और लगाए जा रहे हो।  

मिटटी में बड़े जतन से तुम बीज बोये जा रहे हो, 
धूप से बचा कर, लगातार सिचाईं किये जा रहे हो,  

पर जरा गौर से देखना मिट्टी कीचड़ बना बना कर, 
असल में तो उसे तुम डुबो कर मारवाये जा रहे हो।
   
मीठे मीठे की बात कह कर सब कड़वा किये जा रहे हो,  
चाशनी को तेज़ आँच में, पकाये नहीं जलाये जा रहे हो।  

नन्हे परिन्दों को सदा ऊँचाई का खौफ दिखा दिखा कर,
घौसले में ही कैद कर,अमा!  गज़ब प्यार जताये जा रहे हो।  
                 - अक्स 

https://atulsati.blogspot.in/2017/10/blog-post.html

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

Happy Hindi Day


हम तो !!! 
बच्चे कान्वेंट में पढ़ाएंगे,
और हिंदी दिवस मनाएंगे। 

फ़ोन पर !!!
१ से इंग्लिश पाएँगे और,
हिंदी के लिए २ दबाएंगे।

खेल में !!!
इंडिया इंडिया चिल्लायेंगे,
और भारत को दूर भगाएँगे।

कागजातों में !!!
इंग्लिश में साइन सजायेंगे,
और हिंदी को भूले जायेंगे। 

हम तो !!!
A फॉर एप्पल गाते जायेंगे,
क ख ग में बगलें झाँके जायेंगे। 

आज शाम !!!
मुर्गी नहीं चिकन पकाएंगे,
देसी नहीं इंग्लिश पीते जाएंगे। 

अमा जरा ठहरो !!! 
आज शाम एक गेट टू गेदर करते हैं,
इसी बहाने हिंदी डे सेलेब्रेटायेंगे। 
     
             - अतुल सती 'अक्स'

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

कभी तो

कभी तो,
अपनी यादों की ही तरह तुम खुद भी चली आओ।
मैं सूख रहा हूँ एक पेड़ की तरह,
मेरी शिराओं में बहने वाला पानी,
मेरी आँखों का आँसू तो नहीं बनता,
पर फिर भी आँखों की कोरों से रिसकर भाप हो जाता है।
जाने कैसी बरसात है तुम्हारी यादों की,
ये जितना जम कर बरसती हैं,
उतना ही मैं सूखता जाता हूँ।
कभी तो,
अपनी यादों की ही तरह तुम खुद भी चली आओ।
अब तो बस एक सूखा ठूँठ भर रह गया हूँ,
तुम गर जो एक आखिरी बार,
बस मुझे छू भर लोगी,
तो,
तो,
मैं जल उठूँगा धूधू करके,
के तुम्हारी यादों की बरसात केवल
सुलगाती है मुझे,
बेहद तकलीफ देती है मुझे,
अपनी गिरफ्त में और जकड़ती हैं मुझे,
सुलगाती हैं और बस तरसाती हैं मुझे।
सुनो !!!
सुनो न प्रिये!!!
आज़ाद करदो मुझे अपनी यादों से,
और
छू लो मुझे एक दफा फिर तसल्ली से,
के सुकून हासिल हो मेरी रूह को,
बस एक आखिरी बार और 
लिपट कर मुझसे,
तुम जला लो मुझे,
कितनी दफा यादों के सिरहाने में,
सुलगता सुलगता सोया हूँ मैं,
और तुम,
हर दफा अपनी यादों को भेज देती हो, 
कभी,
ख़्वाबों में ही सही एक बार तो मिलने आ जाओ,
कभी,
कभी तो,
अपनी यादों की ही तरह तुम खुद भी चली आओ।

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

कौन है ये शिव?

कौन है ये शिव?   
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कह दो शिव के सर से बहती, 
वो गंगा धार नहीं,
जिस रक्तिम आसन पर बैठा, 
क्या वो मूलाधार नहीं,
नीलकंठ नहीं विशुद्धि,
त्रिनेत्र में आज्ञा नहीं,
स्वादिष्ठान शिवलिंग दर्प नहीं, 
और क्या 
मणिपुर में कोई सर्प नहीं। 

त्रिशूल नहीं है इड़ा-पिंगला
सुषुम्ना बीचों बीच नहीं।
डमरू नहीं अनाहद यंत्र,
नशा, क्या नाड़ी शुद्धि तंत्र नहीं?

क्या गजचर्म उसका कवच नहीं?
नंदी काम विजय पताका नहीं?
सड़ता,गलता,जलता,बुझता शव है जो,
उस से प्रकट स्वयंभू,
बोलो क्या वो शिव नहीं?

हिमालय के उत्तुङ्गशिखर,
क्या सहस्त्रार के पङ्कज दल नहीं?
श्वास ह्रदय का स्पंदन,
क्या तांडव की तरकल नहीं?

जिस शिव का है सब ध्यान करते,
बोलो !
वो किसके ध्यान में रहता मगन?
मिश्रित हैं उसमे भी मुझजैसे,
अग्नि, जल, पवन, धरा और गगन,            
वो भी तो जलता,बहता,उड़ता रहता,
कठोर कभी तो शून्य सा खोया रहता। 

वो शिव मेरा ध्यान नहीं,
और मैं भी उसका ध्यान नहीं,
फिर भी वो मुझमे है खोया,
और मैं भी उसमे हूँ खोया,
इसका उसको,
इसका मुझको,
अभिमान नहीं।    
उसमे,मुझमे,तुझमे,
इसमें,उसमें,
कुछ भेद नहीं,
बस इतना हमको ज्ञान नहीं। 
                     - अतुल सती 'अक्स'       
       
     https://atulsati.blogspot.in/2017/08/blog-post_24.html
  
         

बुधवार, 23 अगस्त 2017

मेरा अनुभव

मेरा अनुभव
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कहीं दूर पृथ्वी के गर्भ से,
भभक रही है एक ज्वाला,
उछल उछल कर निकल रहा है लावा,
कहाँ से हुई घनघोर रात में यकायक भोर?
एक अदृश्य ऊर्जा स्तम्भ प्रकट हो,
चीर जाता है मुझे,
सुषुप्त सुषुम्ना को,
चमका कर,
कहीं दूर जाता है,
अनंत अंतरिक्ष की ओर।

अरे!!! क्या हुआ ये ???
स्तब्ध हुआ "मैं",
क्यों पागलों सी नाचने लगी,
दोनों सहेलियाँ,
और सुलझाने लगी हैं जैसे पहेलियाँ।

क्यों लहरा लहरा कर,
बेलों सी लिपट रही थीं?
क्यों रंग बिरंगे कमलों को,
खिला रही थी?

कहाँ फट रहा है ये ज्वालामुखी,
क्यों ठंडा है ये बहता लावा?
क्यों समय का नहीं हुआ एहसास?
क्यों फट गया है कपाल?
और कौन है?
जो खिला रहा है कमल आसपास?

सहस्त्र कमलदल के बीच खड़े हो?
कौन देख रहा है किसको,
अंतरिक्ष ये जगमग जगमग क्या है?
क्या है ये अनुभव? जो होता है मुझको?

कौन था "मैं" क्या हूँ "मैं"
क्यों अश्रुधारा रूकती नहीं?
क्यों हँसी कभी थमती नहीं?
क्यों रोना आता है तभी,
जब बेतहाशा हँसी आती कभी।

क्यों साँसों की ध्वनि ह्रदय संग तरंगित होती?
क्यों ऊर्जा स्पंदन की ऊपर नीचे अनुभूति होती?
क्यों अणु सामान खाली ही महसूस होता है?
क्यों तुझमे मुझमे इसमें उसमे
कोई भी अंतर नहीं महसूस होता है?
- अतुल सती 'अक्स'

सोमवार, 24 जुलाई 2017

बच्चों सी बातें

आसमान सतरंगी कहता हूँ
बादलों के साथ खेलता हूँ
तारों की चादर ओढ़ कर,
चाँद को झिलमिल बहता हुआ,
वो जो रात को नदी को देखते हुए,
दिखता है न,
उसे,
हाँ उसी झिलमिल बहती चाँदनी को अपनी आँखों में समेटता हूँ।
और लोग कहते हैं
कि मैं बच्चों सी बातें करता हूँ। 

जब अचानक से एक तितली घूमती है आसपास,
और हवा में उड़ते हुए आता एक सेमल का कपास,
कोई कली कहीं जब भी खिलती है,
आहा!
बारिश की मिटटी से सौंधी हवा महकती है,
मैं नाचता हूँ, गुनगुनाता हूँ।
और लोग कहते हैं
कि मैं बच्चों सी बातें करता हूँ।

रात हुई तो जुगनू पकड़ कर मैं,
छोड़ देता हूँ आसमान में तारे बनने को,
और जब चलता हूँ नंगे पाँव और मखमली लगे ओंस से भीगी घास,
कैसे कोई भूल सकता है वो अनूठा एहसास।     
मैं आज भी उसी एहसास को तरसता हूँ,
और तुम कहते हो
कि मैं बच्चों सी बातें करता हूँ। 
                            -अतुल सती अक्स

रविवार, 23 जुलाई 2017

 देवालय मदिरालय वैश्यालय का दोगलापन 

ऊँच नीच,
ये जात धरम सब,
देवालय में होता है।  
मदिरालय या,
वैश्यालय में,
ये दीनधरम,
कहाँ होता है।  

मदिरालय में ,
जाके खुदको, 
जग से दूर,
भगाते हैं।
घर को अपने,
स्वाहा कर के,
कैसी प्यास,
बुझाते हैं। 
 
    
वैश्यालय में,
आते सज्जन,
छुप कर आते,
जाते हैं। 
किसकी बीवी,
किसकी बेटी,
बस नोंच नोंच कर, 
खाते हैं।   

अट्हास करता,
नपुंसक पौरुष,
सिसकता है,
नारीत्व यहाँ। 
भोग विलास,
और लूट खसोट,
बस ये है इनका,
पुरुषत्व यहाँ।         

परनरगामी जो,
हुई,
वो तो है,
नीच यहाँ। 
परनारीगामी जो,
है बना,
फिर वो कैसे,  
उच्च यहाँ?  

कौन है साक़ी,
कौन हमबिस्तर,
मतलब किसे,
कहाँ होता है?
तन की भूख,
मिटाने वाला,
बस गिद्ध बना,
यहाँ  होता है।

ऊँच नीच,
ये जात धरम सब,
देवालय में होता है।  
मदिरालय या,
वैश्यालय में,
ये दीनधरम,
कहाँ होता है।  
              -अतुल सती #अक्स 

     
       

गुरुवार, 6 जुलाई 2017

कहानी पहाड़ी वाले बाबा की



आओ तुम्हे सुनाऊँ एक कहानी,
पहाड़ी वाले बाबा की कहानी। 
ऊँचे ऊँचे पहाड़ों में रहने वाला था वो,
अब रहता था ऊँचे ऊँचे मकानों में,
विकास की नदी में बह गया था वो,
पहाड़ी से कबका मैदानी बन गया था वो। 
मैदान की भाग दौड़ लूट गयी उसकी जवानी। 
बस यहीं से शुरू होती है हमारी कहानी।  

वो बूढ़ा अकेले अकेले ही,    
रोज इकठ्ठा करता मिट्टी, एक जगह,
बनाता टीला उनका,
सजाता घास और टहनिओं से उन्हें। 
देसिओं के बीच का वो पहाड़ी,
बल ठैरा वो एकदम अनाड़ी। 
नौकरी की बाढ़ में बगा था वो,
खुद की ही बनायी  हुई,
मजबूरी के हाथों, गया ठगा था वो। 
कहने को उसका नॉएडा में टॉप फ्लोर था,
पन्द्रवीं मंजिल में ,
जन किसी डांडा के टुख्खू का एक छोर था। 

अपने वगत जो सही लगा किया उसने,
अपने माँबाप छोड़े तरक्की को,
और आज उसका बेटा तरक्की कर गया ,
अपनी ईजा को भी अपने दगड़ ले गया, 
बाल बच्चों दगड़ी विदेश बस गया। 

वो अपने आखिरी दिन उन मिट्टी के टीलों पर,
जिन्हे वो अपना पहाड़ कहता था,
अपना घर कहता था,
उन्ही टीलों पर वो बैठ वो सबको अपनी कहानी सुनाता।
बच्चों को बुलाता और सुनाता,  

"वो बताता कि वो एक पहाड़ी था कभी,
अपनी पहचान खो कर,
उसे वहीँ पहाड़ों में दफना कर,
यहाँ मैदान में आया था। 
पर यहाँ उसके उस त्याग को कोई समझा ही नहीं,
यहाँ सभी तो ,
अपनी पहचान दफ़न कर आये थे अपने गाँव से,
कोई कार चलाता, तो कोई उसकी कार साफ़ करता। 
कोई सड़क बनाता तो कोई सड़क पर चलता,
कोई मजदूर तो मकान मालिक,
सभी अपनी पहचान दफ़न कर आये यहाँ,
सबकी थी एक ही कहानी,
पलायन पलायन पलायन की कहानी।   
सब आये अपना घर बार छोड़ छोड़ कर, 
और फिर यहाँ एक पहचान बनाई,
पहचान साहब की, नौकर की, गार्ड की,
कुक की, मालिक की, सर की,  
छोटू की जो कभी बड़ा नहीं होगा,
मैडम की, ऊँचे लोगों की, नीचे लोगों की,         
असल गँवा एक नकली पहचान बनाई, 
लेकिन इस पहचान में अपनी ज़िन्दगी गंवाई। 
पर, 
तुम बच्चों अपनी पहचान मत गँवाना,
तुम,
हाँ तुम मिलकर बच्चों,
स्मार्ट सिटी की जगह स्मार्ट गाँव बनाना।
ताकि किसी को अपनी पहचान न पड़े गँवाना।"

वो बूढ़ा ता-उम्र बस बातें करता रहा,
पहाड़ों की, पहाड़ों की वापसी की,
ये थी कहानी पहाड़ी वाले बाबा की,
कहानी अतुल नाम के शख़्स की, 
अतुल के जैसे हर एक 'अक्स' की। 
                             - अतुल सती अक्स  
 

बुधवार, 5 जुलाई 2017

पहाड़ी वाले बाबा और उसका अतीत।



आज एक कहानी सुनाता हूँ मैं आपको। एक कहानी एक दाना मनखी(बूढ़ा व्यक्ति) की। एक पहाड़ी वाले बाबा की। 
वो बाबा अक्सर बैठे रहते थे, नॉएडा के एक हाई -राईज  सोसाइटी के एक पार्क में, एक टीले नुमा जमीन पर। उन बूढ़े आदमी की उम्र रही होगी कुछ ८०-८५ साल। उस बड़ी सी पहाड़ सी ऊँची ऊँची बिल्डिंग की उस सोसाइटी में वो अकेले  ही रहते थे। उनकी पत्नी उनके एकलौते बेटे के साथ अमेरिका बस गयी थी। बेटा खूब तरक्की कर चुका था और अमेरिका में रहता था और उसकी माँ वहां रहती थी उसके साथ क्यूंकि वहां उसे अपने नाती नतीने भी तो संभालने थे। 

५-६  साल हो गए थे न तो उस बूढ़े से मिलने कभी कोई आया न ही वो कहीं गया। उसे सब पहाड़ी वाले बाबा कहते थे। वो बाबा हमेशा उन टीलों पर ही सारा दिन -शाम रहते थे। उस टीले पर कुछ कुछ घास उगी हुई थी। कहीं कहीं पर किसी पेड़ के पत्ते तोड़ कर पेड़ जैसा अकार देकर कुछ टहनियां गाड़ रखी थीं।कहीं कहीं पर उन "पहाड़ी बाबा" ने पानी जमा किया हुआ था।  कहीं कहीं उन्होंने नदी जैसी कुछ धार बना राखी थी। वो रोज वहां पानी लाते और पानी को एक छोटी नदी सी बहाते और वहां खड़े बच्चे खूब खुश हो कर उनकी इन हरकतों का मजा लेते। एकदम असली सा पहाड़ लगने वाले टीले को ही वो अपना घर कहते थे। वो कहते थे कि ये मेरा घर है, ये उत्तराखंड है।  मेरा उत्तराखंड।   
शाम को बाबा बच्चों को और उनके माता पिता को अक्सर अपने किस्से सुनाते थे  और वो किस्से कहानी थी उत्तराखंड की। उनके कहानी में, किस्सों में अक्सर एक युवा का जिक्र होता था, जो हमेशा ही अपने पहाड़ पर जाना चाहता था। अपने माता पिता के साथ रहना चाहता था लेकिन उसके उस उत्तराखंड में केवल शिक्षा थी पर रोजगार नहीं। उसे पलायन कर नॉएडा में आना पड़ा और फिर कभी वापस न जा पाया। बस बातें ही करता रहा वापस जाने की। उत्तरप्रदेश से उत्तराखंड अलग हुआ तो था पर वो युवा हमेशा उत्तरप्रदेश का ही बनकर रह गया। जैसा उसने अपने राज्य और अपने माँबाप के साथ किया, वही उसके बेटे ने उन बाबा के साथ किया। इसीलिए अब उन्होंने अपना पहाड़ इस टीले पर बसा लिया। उसमे नकली बौण(जंगल), धारा, गाड़, गदना, नदी बना कर, एक नकली उत्तराखंड बना कर, बस अपने आखिरी दिन गिन रहे थे।  
                             
वो बाबा अपने आपको NRU (नॉन रेजिडेंट ऑफ़ उत्तराखंड ) कहते थे और आज उनका बेटा NRI बन चुका था। पहाड़ी वाले बाबा जी बताते थे कि बचपन में उन्होंने उत्तराखंड आंदोलन में भाग भी लिया था और वो जब जवान थे तो वो हमेशा ही वापस जाना चाहते थे लेकिन उनकी तमाम मजबूरिओं और परिस्थिओं के कारण उनके कथनी और करनी में अंतर ही रहा। जिस मजबूरी को उन्होंने अपना ढाल बनाया था वो ही अब उनके बेटे की ढाल है। 

शायद ये ही जीवन का चक्र है। 
बाबा का नाम पूछा तो बोले कभी लोग उन्हें "अक्स" कहते थे।        
                                   - अतुल सती 'अक्स'

मंगलवार, 20 जून 2017

खुद


यख बिजाम जड्डु च माँ,
यन त रजै भी च अर कम्बलु भी च मेरा काख पर,
पर माँ तेरी खुखली की निवति ते,
मि आज भी खौजणु छौं।
यन त पिताजि यख सब्बि साधन छन,
सुख सुबिधा मनोरंजना का,
पर पिताजि जू सुख घुघूति बसूदी मा छे, घुघ्घी मा छे,
मि आज भी वैते खौजणु छौं। 
अब मि नि करलू जिद्द घुघूति बसूदी की, 
नि करलू जिद्द खुखलि की,
रैण द्या मैंते अपरा काख मा तुम, 
थौक गयुँ मि यख यखुलि यखुलि रैकि।
तुम तै भि त खुद लगदि ह्वालि म्यारि, 
त क्या पै बोला हमुन दूर रैकि? 
-अक्स 

हिंदी अनुवाद ------------------------------------------------------------------------------------------------

यहाँ बहुत ठंड है माँ,
वैसे तो रजाई भी है और कम्बल भी है मेरे पास,
पर माँ तेरे गोद की गर्माहट को,
मैं आज भी खोज रहा हूँ। 
वैसे तो पिताजी यहाँ सभी साधन हैं, सुख सुविधा मनोरंजन के,
पर पिताजी जो सुख "घुघूती बसूदी" में था, आपकी पीठ की सवारी में था, 
मैं आज भी उसे खोज रहा हूँ। 
मैं अब नहीं करूँगा जिद घुघूती बसुदी खेलने की, 
न ही गोद में बैठने की जिद करूँगा। 
मेरे को बस अपने पास रहने दो आप, 
मैं थक गया हूँ यहाँ अकेले अकेले रह कर। 
आपको भी तो मेरी याद आती होगी, 
तो बोलो क्या पाया हमने एकदूसरे से दूर रह कर। 
-अक्स  

मंगलवार, 13 जून 2017

मेरी बैक क्लीवेज और उसे ताड़ती तुम लड़कियाँ


क्यों मेरी बैक क्लीवेज को ताड़ती हो तुम लड़कियाँ,
जब भी मैं झुकता हूँ कुछ उठाने को या
फिर बाइक पर बैठा होता हूँ किसी के साथ?
क्या मेरा अंडरवियर पहनना है तुम्हे?

क्यों मेरी बनियान पर हरदफा अटक जाती है,
तुम लड़किओं की निगाहें?
अगर झांके वो टीशर्ट के गले से? 
क्या तुम पहनोगी मेरी बनियान?

क्या अटका है मेरी छाती के बालों में तुम्हारा?
जो घूरती रहती हो तुम लड़कियां,
मेरी शर्ट के खुले हुए तीसरे बटन को?
कुछ खो गया है क्या वहां? 

क्यों मेरे पेट के उभार पर बैठती हैं निगाहें,
क्यों मेरे हर उभार को देखकर,
तुम्हारा शरीर जड़वत होजाता है?
क्या उन पठारों पर घर बनाना है तुम्हे?

क्यों नहीं तुम अपनी निगाहों पर पर्दा करती? 
क्यों हम मर्दों को बुर्का पहनाती हो?
क्यों बुर्क़े के भीतर भी हमें झांकती हो?
क्या तुम्हे भी अपना जीवन स्याह करना है?    

बोलो लड़किओं हरदफा, हरजगह, हरउम्र में,
क्यों हम मर्दों के जिस्मों को नोचती हो तुम?
क्या मर्द होना गुनाह हो गया?
या तुम्हे भी स्त्री से मर्द होना है?