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सोमवार, 27 नवंबर 2017

एक कहानी इंसानियत और धरती की

मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।


मैं कैसे तुमको प्यार करूँ?

कैसे मैं तुम्हारा दुलार करूँ?

अश्कों सी मायूस राख हूँ  मैं ,

कोई आग न अब मेरे अंदर है।


मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।


बीज जो मुझ में रोपा गया,

वो रूठ गया, वो सूख गया,

बस एक खाली गुब्बार हूँ  मैं,

कोई आब न अब मेरे अंदर है।


मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।

        -अक्स 


http://atulsati.blogspot.com/2017/11/blog-post_27.html


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