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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

कुछ तो बोलो


बहुत खामोश से रहते हो, कुछ बड़ा सुनाना चाहते हो क्या?
ये ऊपर क्या देखते रहते हो? किसी को बुलाना चाहते हो क्या?
.

हँसते हो,कभी गुस्सा होते हो, अजीब सी हरकतें करते रहते हो,

वो याद आ रहा है क्या? उसे फिर से भुलाना चाहते हो क्या?

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?



हिन्दू ही रहूँ या फिर मुसलमान हो जाऊँ ?
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?

कट जाऊँ सुवर सा या गाय सा हलाल हो जाऊँ?
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?

बुत परस्ती छोड़ कर क्या मुर्दा परस्त हो जाऊँ?
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?

आठ सौ साल का शोक करूँ या अभी का शोक मनाऊँ,
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?

सुवर गाय की चर्बी,कारतूस, मंगल पांडेय को झूठा बनाऊँ?
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?

दादी टोपी लगाऊँ, या टीका लगा कर भड़काऊं?
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?
 
तुमसे लड़ते लड़ते तुम जैसा ही हो जाऊँ?
क्या करूँ कि थोड़ा सा इंसान हो जाऊँ?

बुधवार, 30 सितंबर 2015

हिन्द - कल्पना में

जिस हिन्द की कल्पना कभी की थी तुमने,
वहाँ हिन्दू भी था और मुसलमान भी था। 
जिस हिन्द को बना डाला है तुमने,
वहाँ हिन्दू ही है, बस मुसलमान ही है। 
   
मिटा दो ये टीके, जला दो ये टोपी। 
नहा लो लहू से, खेलो तुम होली। 
जला के घरों को मनाओ दिवाली। 
कटा दो गले, दे के तुम क़ुर्बानी।

जब नालिओं में सारा लहू बहाया करोगे ,    
के तब जा के आएगा सुकून तुमको, 
के जब हिज़ाब सर से उतारा करोगे,
और साड़ी के फंदे पर लटका करोगे,
के तब जा के आएगा सुकून तुमको,
जब अपनों को रोज जलाया करोगे ।   

कहीं पर कटी लाश होगी बेटे की,
कहीं पर बेटी को जलाया करोगे,
कहीं पर कोई माँ पड़ी होगी बेसुध,
कहीं पर कोई बाप मारा करोगे, 
के तब जा के आएगा सुकून तुमको, 
जब अपनों को रोज दफनाया करोगे।    

हिन्दू भाई मुस्लिम भाई भाई न रहेंगे, 
सबका कत्ल सरे आम किया करोगे,  
के तब रहेगी आन अपने मजहब की,
जब भगवा हरा, हरा भगवा करोगे,
के तब जा के आएगा सुकून तुमको,
जब दोज़ख को जमीं पर उतारा करोगे? 

गाय है हिन्दू, मुसलमान है बकरी,
सुवर है हराम और अपनी है मकड़ी,
के मंदिर में तुम राम चिल्ला न सकोगे,
भड़कती अज़ानों को चुप करा न सकोगे,
के मंदिर भी लाल, मस्जिद भी होगी लाल,
तुम्हारे रहनुमा का होगा ये कमाल,
कोई है जमाल तो कोई है जलाल,
लहू है अश्क ,यही होगा सूरते हाल,
तब तुम किस अवतार को निहारा करोगे?
के तब किस पैगम्बर को पुकारा करोगे?
के जब खत्म हो ही जाएगी ये धरती,
तब किस मुहं से उसको पुकारा करोगे?
के तब जा के आएगा सुकून तुमको, 
जब किसी के लहू से नहाया करोगे?  

भरे पेट की बातें हैं, ये दीन की बातें,
अँधेरी रातें बनाती ये बातें।
तू यूँ ही ठण्ड से ठिठुर के मरेगा,
कभी लू से धूं धूं कर के जलेगा,
के बेटी तेरी नोच कर खा जाएंगे,
माँ बेटी कोठे पर सजाया करेंगे,
और तुम बस यूँ ही घुन से पिसते ही रहोगे,
चिता पर अपने की  रोटी पकाया करोगे,
फिर तुम खाना भरपेट दीन की रोटी,
जिसे काफिर की चिता में सिकाया करोगे,
जो बोया है दो गज जमीन के नीचे,
उन्ही मजारों की जड़ में मट्ठा जमाया करोगे,
के तब जा के आएगा सुकून तुमको,
जब निशाँ हिन्द का खुद ही मिटाया करोगे।   
          

के तब लहू से सने हाथों को,
देखना अपने रीते हाथों को,
न मजहब का डंडा, न दीन का परचम,
हिन्द में ही हिन्द की चिता जल उठेगी।            
बना दो चिता तुम अपने ही धरम की,
के तब कालिख को लगाना सीने से,
जलाना भभूति, नहाना लहू से,
के तब जा के आएगा सुकून तुमको,
जब जानोगे के ये वो हिन्द नहीं हैं कहीं से,
के जिस हिन्द की कल्पना कभी की थी तुमने।


                  -अतुल सती 'अक्स'

                


समाचार:     कोटद्वार(उत्तराखंड) में कुछ मुसलामानों द्वारा चार हिन्दुओं की हत्या। 
                  ग्रेटर नॉएडा में कुछ हिन्दुओं द्वारा एक मुसलमान की गौवध के आरोप में हत्या।      
    

         

  
   
   
  

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

यू जू गंगा- अनंतनाद


यू जू गंगा औंदी च तोळ, 
लौन्दी च माँ कू रैबार, 
ऎजा ऎजा बोढ़ी की घोर,
सूणू पड़यूँ घोर बार 

गौं अपरू छोड़ी, 
उंदरिओं ते दौड़ी, 
काटिलिन मिन अपरा जौड़
ना मी पहाड़ी ना  मी च देशी 
खुएदिन मिन अपरी पछाण 


पहाड़ !!! पहाड़ !!! पहाड़ !!! पहाड़ !!!
मेरु प्यारु पहाड़ !!!  


पहाड़ !!! पहाड़ !!! पहाड़ !!! पहाड़ !!!
मेरु प्यारु पहाड़ !!!  

हे मेरा लाटा!!!
गौ का यु बाटा,
यू उकाल उन्धार। 
सिखौंदा छाँ हमते,
बिंगोंदा छाँ हमते,
जीवन कु सरु सार!!!

पहाड़ !!! पहाड़ !!! पहाड़ !!! पहाड़ !!!
मेरु प्यारु पहाड़ !!!   



क्यों लिखता रहता हूँ मैं?

कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ मैं, 
तुम पूछते हो कि क्यों लिखता रहता हूँ मैं?  
क्यूंकि मैं चिल्ला नहीं सकता सरेआम,
रो नहीं सकता,
नाच नहीं सकता,
हँस नहीं सकता न सरेआम, 
तुम पागल कह भी दो तो कोई बात नहीं, 
पर कहीं पागल समझ कर मुझे,
तुम नज़रअन्दाज़ न कर दो,
इसी बात से बहुत डरता हूँ मैं,
इसीलिए,
इसीलिए तो, 
कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ मैं। 

मेरी सारी चीखें, सिसकियाँ,
सारी हँसी, सारी ख़ुशियाँ,
सिमट ही जाती हैं चुपके से,
मेरी कविताओं में,
अपना हाल-ए-दिल छुपा भी लेता हूँ,
और कुछ कुछ जता भी लेता हूँ,   
रो भी लेता हूँ मैं,
तो कभी हँस भी लेता हूँ,
कभी कभी जरा गौर से सुनना मुझे,
बेहद हौले से, एकदम ख़ामोशी से,
बेतहाशा चीखता रहता हूँ मैं,           
इसीलिए,
इसीलिए तो, 
कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ मैं। 
                       - अतुल सती 'अक्स' 

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

क्यों है?

















ये सिक्का खरा है तो वो खोटा क्यों है?
ये धागा रिश्ते का महीन,वो मोटा क्यों है?

सदा खामोश रह कर ही सुनता है वो तुझे, 
पर नज़रों में तुम्हारे ही वो झूठा क्यों है?

उम्र में बड़े लोग बड़े ही होते हैं अक्सर,
गर वो कद में छोटा है तो वो छोटा क्यों है?

लहू रिसने लगा है अश्कों की शक्ल में अब,
कोई ये न कहे इश्क में आंसू का टोटा क्यों है? 

बड़ी ही वफ़ादार कौम सुनी है मर्दों की 'अक्स',
गर ये सच है तो हर शहर में ये कोठा क्यों है?
                                    -अतुल सती '#अक्स'

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

ख़्वाबों से मरासिम


सुबह सुबह जब,
मेरी नींद के दरवाज़े पर,
एक ख्वाब ने दस्तक दी।
मैं चौंक सा गया।
किवाड़ खोले तो देखा के एक ख्वाब खड़ा है। 

लगा ऐसे मानो वो कुछ कहना चाह रहा था,
शक्ल उसकी जानी पहचानी तो थी, पर,
दिमाग पर बहुत जोर देकर भी ना पहचान पाया।
जैसे बाद मुद्दतों के कोई छुटपन का यार मिलता है,
ख़ुशी सी लगती तो है दिल को,
पर दिमाग परेशान सा करता है।
कौन है ये? जानता तो हूँ पर पहचान नहीं पा रहा।
उसका मुस्कुराता चेहरा,
मानो पुकार रहा था मुझे,
ले जाने आया था संग अपने,
मुझे इस नीले फ़लक में एक बेफिक्र परिंदे की मानिंद उड़ाने को।
घबरा के में उठ गया और पेशानी पर मेरी ठंडी कुछ बूँदें चमक उठी।
कौन था ये जाना पहचाना सा ख्वाब?
फिर याद आया कि मैंने ख्वाब देखने कबके बंद कर दिए थे।
हँसते हुए ख्वाब, ऊंची उड़ान लिए हुए ख्वाब।
इस ज़िन्दगी में ख़ुशी तो खो ही दी थी जागते हुए,
पर,
अब नींद में भी हँसते ख़्वाबों से कमबख्त मरासिम न रहा

                            - अतुल सती 'अक्स'- Atul Sati 'aks'

दौर



इतनी भीड़ इकठ्ठा हो गयी है,
मेरे इर्दगिर्द कि,
अब खुद का ही अक्स अज़नबी लगता है, 
खुद से ही नफरतों का,
जो अब दौर निकल पड़ा है,
वो दौर अब कहीं थमता नहीं।


समझते हैं मुझे, 
ऐसा कहते तो हैं,
पर मेरे एहसासों को नज़रअंदाज़ करते हैं,
जो दौर मेरे जज़्बात के नज़रअन्दाज़ी का,
शुरू हुआ है, 
वो दौर अब कहीं थमता नहीं।

इश्क भी है, 
रश्क भी है मुझपर,
जिगरी भी हूँ,
हबीब भी,
लेकिन तन्हाई के सलीब पर,
टांगने का जो दौर शुरू हुआ है,
वो दौर अब कहीं थमता नहीं।

चीखती हैं, 
चिल्लाती हैं,
मेरे भीतर की खामोशियाँ,
उन खामोशियों का तेज़ बहुत तेज़ शोर,
वो शोर अब कहीं थमता नहीं।
                                -अतुल सती अक्स https://www.facebook.com/AtulSati.aks

सोमवार, 21 सितंबर 2015

सफर

इस ज़िन्दगी की दौड़ में मैंने इज़्ज़तें पायी, शोहरतें पाईं, 
पर इनको पाते पाते कुछ खो भी दिया।    
दूसरों को खुश रखने को अपना अक्स खोया, 
अक्स खोया तो धीरे धीरे जूनून खो दिया,
दौलतमंद हूँ शोहरत मंद भी हूँ,
लेकिन ऐ दोस्त सुकूनमंद नहीं,
कहते हैं सुकून जिसको ए 'अक्स',
उसी एक लफ्ज़ को जाने कहाँ खो दिया। 

आँख खुल जाती है सुबह,
तो अब उठना ही पड़ता है बेमन,
उधारी चुकानी है,
तो काम पर भी जाना ही होता है बेमन,
आलम ये है कि जवानी शुरू होती है,
बस बुढ़ापा ठीक करने को केवल, 
और बचपन का तो बचपन में ही क़त्ल कर दिया जाता है।
थकान का इस ज़िन्दगी में कोई मतलब नहीं,
मौत भी कोई अब मुक्कमल  नींद नहीं। 
बिस्तर खरीद लिया है पर नींद नहीं,
नींद का वक़्त ही खो दिया।
मकान बनाने की दौड़ में अपना घर खो दिया। 
कहते हैं सुकून जिसको ए 'अक्स',
उसी एक लफ्ज़ को जाने कहाँ खो दिया। 
                          -अतुल सती 'अक्स'  
  
         
        

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

दर्द

जो भी ये ज़िन्दगी दे, तू उसका तराना ना बना,
दिल में दिमाग रख कर,तू  उसे दीवाना ना बना।     

दर्द जो मिला है,अश्क बन कर बहने दे उसे,
रोक कर उसको  यूँ जख्मों का निशां ना बना। 

ये क्या अब उसके किस्से लोगों को सुनाता है,
इश्क को अपने यूँ, बेवजह अफसाना ना बना। 

दिल तो दिल है, दिल को दिल ही रहने दो,
इसको बेवजह यूँ, ग़म का ठिकाना ना बना। 

ख़ुशी मिली तो जी भर के जिया था, ऐ दिल,
ग़म-ए-दौर में यूँ,मरने का  बहाना ना बना। 

जो हुआ सो हुआ, उसे तो होना ही था  'अक्स',
अब नफरतों से भरा यूँ तो, ये जमाना ना बना। 
                    -अतुल सती 'अक्स'    

त्वेसे ही मेरी य दुनिया...अनंतनाद !!!



त्वेसे ही मेरी य दुनिया 
त्वेसे ही मेरी य माया 

तू मेरा मन मा यन बसीं च,
जन जून हो ये आसमां मा 

त्वे देखि की कुजणि कख ख्वे जांदु मी,
सुध बुध हर्चे की जणि कख डबड्यान्दु मी 

तेरी माया मा...तेरी माया मा...तेरी माया मा...तेरी माया मा...

जून ते तकदूँ रातों  मा,
निंद भी नि च अब आँख्यों मा,

मेरी य सेरी दुनिया बसीं च 
तेरी सुरम्यलि आँख्यों मा। 

त्वेसे ही मेरी य दुनिया 
त्वेसे ही मेरी य माया 

तू मेरा मन मा यन बसीं च,
जन जून हो ये आसमां मा 

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

इतिहास

जिस दिन अपना इतिहास,
हम लोग जान जायेंगे,
किस तरह खुद से,
हम लोग,
अपनी नज़रें मिलाएंगे ? 
सत्य उसी को मानते हैं, 
जो हमें लगे है अच्छा,
जब सत्य सचमें हम जानेंगे, 
तब बोलो,
कैसे अपना सत्य भुलायेंगे?      
याद रखो अपना सच,
खोजो जानो समझो उसको,
भूलो मत जो कुछ भी हुआ,
अपने किये धरे का, 
लेकिन माफ़ी माँगो,
और माफ़ी देदो,
नहीं तो ऊपर वाले को बोलो फिर,
क्या अपना मुख दिखाएंगे?     
जिस दिन अपना इतिहास,
हम लोग जान जायेंगे,
किस तरह खुद से,
हम लोग,
अपनी नज़रें मिलाएंगे ?     
                                                 -अतुल सती 'अक्स'

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

धै !!! मेरा घौरे की

सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब,
यख बस असमान ही असमान च, 
कखि न त धरती च, न पहाड, न कोई बौण, 
न कोई डाली बोठली,
कु जाणि वख घोर मा, बौण कण होला?
पन्देरा कण होला वु घुघूती कण होली?  

सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब,
वखि वे बौण मा, 
जू जलणु छौ ये जेठ मा, जू जेठ बारो मासी छौ,
वखि जख हमारू अपरू घौर छौ,
वे बौण मा जू वु बरगदो डालु च,
जू फुकेगी ये विगास मा, 
हमारा बरगदे का विनाश मा,
वे मा मौल्यार ए जाली,
मेरी लाटी, मेरी चखुली,
तू जु एक बार घोर ऐ जाली।         

देख दी वे बौण मा सब्बि डाली सूखी गेन,
वेका सारा पोथ्ला फुर्र करी के उड़ी गेन,
सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
बोड़ी की जू घौर हम जोला,
यु अमर जेठ खत्म हुए जालु,
तेरा मेरा अर ये बोण का, ये बरगद का,
आँख्यों का बस्ग्याला का बाद,
जू बसंत औलू,
वू ही सदानि रेलू,       
सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब,
वु पुरखों कू घौर,
हम पोथ्लों कु ठौर,
धै लगौणु च हमते,
चल अपरा जोड़ों ते खोजदन  अब, 
सुन मेरी चखुली, मेरी लाटी,
चल अपरा घोर चलदन अब। 

बुधवार, 19 अगस्त 2015

एक अकेला ठूँठ


सुबह सुबह एक ख्वाब आया, 

देखा कि मैं किसी बंज़र सूखी जमीन पर खड़ा हूँ,
मैं हूँ,एक अकेला ठूँठ किसी पेड़ का,
सूखा और हर किसी से रूठा हुआ,
जमीन के भी माथे पर शिकन नुमा,
दरारें थी, न जाने कितनी गहरी। 
एक दम सूखी टूटी फूटी, 
उन दरारों देख कर जमीन की,
मुझे अपने कुछ रिश्ते याद आ गए। 
उनमें भी यूँ ही सूखा पड़ा था। 
उनमें भी कुछ यूँ ही दरारें थीं।

कुछ दरारें माँ बाप के साथ की दिखी,
जिनके बिना बचपन में मुझसे रहा नहीं जाता था। 
और आज उनका बोझ भी सहा नहीं जाता। 
हर दिन बात करना तो बहुत बड़ी बात है,
पर हफ्ते में कभी फ़ोन पर बात हो भी जाती है,तो, 
समझता हूँ कि,एक बड़ा एहसान कर दिया मैंने उनपर। 
भाई का हाल तो पता ही नहीं मुझे,
अब उसकी फैमिली अलग और मेरी अलग हो गयी है न। 
कभी हम भी एक ही फैमिली का हिस्सा थे। 
साथ साथ खेले थे कभी,
और आज हाल भी नहीं पूछते कभी।
याद है बचपन में कभी भाई कहीं फंस जाता था मुसीबत में,
तो मैं हाथ बढ़ा कर उसे थामता था, गले लगाता था,
आज तो भाई से हाथ भी नहीं मिलाया जाता,
गले लगाना तो बड़ी बात है। 

मेरे पर एक सूखी बेल भी लिपटी हुई थी,
शायद मेरी बीवी थी वो, सूखी हुई मुरझाई हुई,
शिकायत से भरी हुई कि, मैंने उसे पनपने ही नहीं दिया,
खुद की दुनिया में इतना फैला कि उसे भी सोख लिया,
वो लिपटी तो थी मुझसे वो, 
पर कहीं कहीं पर कुछ फासले थे,
जो दिखने में तो,बाल बराबर ही थे, 
पर यूँ महसूस होते थे, गोया हम दूर हों इतना कि,
लाख सदायें दें एकदूसरे को, 
पर ना तो मुझे वो दिखती ही है,ना मैं ही उसे सुनायी देता हूँ। 
हम तो जमीन से पानी सोखने में,सूरज से रौशनी लेने में, हवा लेने में, 
इतना ज्यादा खो गये थे कि,पता ही नहीं चला कि कब ये, 
पलों की दूरी, सदिओं के फासले हो गए।

दोस्ती भी मतलब से ही की थी मैंने,
हवा, जमीन, पानी से कि मेरा मतलब निकल जाये,
और आज हकीकत ये ही है कि,
वो सब साथ तो हैं मेरे, पर जमीन सूख गयी,
हवा रूठ गयी, पानी का पता ही नहीं है अब,
मैंने तो कभी कोशिश भी नहीं की, कि, ये दूरी क्यों हैं,
मैं तो जमीन से नीचे भी था, और ऊपर भी,
लगा था आकाश छू लूंगा, मुझे इनकी क्या जरूरत।
कदर नहीं कर पाया, पर, 
आज बहुत याद आते हैं ये सब,
जहाँ मैं दरारों की जमीन पर खड़ा हूँ,
एकदम तन्हा, एक सूखे हुए दरख्त के ठूँठ की तरह। 
आँख खुली तो देखा कि वाक़ई में ये दरारें हैं,
वाक़ई में मैं एकदम तन्हा हूँ ,एक सूखे हुए दरख्त के ठूँठ की तरह।
मैंने तो दरारों को वक़्त रहते पाटा नहीं,
पर आप पाट लो इनको वक़्त रहते,
नहीं तो कहीं किसी जमीन पर खड़े होंगे,
मेरी ही तरह, 
एकदम तन्हा, एक सूखे हुए दरख्त के ठूँठ की तरह।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

बचपन


सूरज, चाँद, बादल और तारे,
कुछ शफ़क, कुछ अँधेरा,
कुछ मिट्टी और कुछ फूल,
सब कुछ एक ही जेब में  रख कर,
नादानी और प्यार मिलायें तो। 
फिर इस बेमतलब जीवन में हम ,
बचपन वाला वो धनुक लाएं तो,   
बचपन की कोई सीमा नहीं है,
उसको अनंत बनाएं तो,  
इस जीवन में क्या नहीं है,
जवानी बुढ़ापा भुला कर,      
खोजने जरा आप जाएँ तो। 
            -अतुल सती 'अक्स'  

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

कलाम !!!


"अबुल" परदादा की बेल, 
"पकीर" दादा से होते हुए,
"जेनुलआब्दीन" पिता के कंधे से,
जब आकाश की और पहुंची, 
तो "अब्दुल कलाम" आज, 
आसमान की अनंत शिखर की ओर,
आज़ाद हो गए। 
पर, 
वो बेल यहीं पर खत्म नहीं होती है,
बल्कि वो जिस्म जब सुपुर्दे ख़ाक होगा,
तब उस मीट्टी से अनेक अँकुर निकलेंगे,
उसकी सौंधी मिटटी से तीनों जग महकेंगे,  
गर कुछ खिलौने उस मिटटी से बनेंगे,
तो भी वो बच्चों के हाथों में चमकेंगे,
आसमान तक भी आज फूट फूट कर रोया है,
भारत माँ ने अपना सच्चा सपूत खोया है,
भारत ने आज अपना महा रत्न खोया है,
लेकिन ये मत कहना कि कलाम मर गए,
ऐसा कहा नहीं करते हैं,
सुनो बच्चों!!!
ऐसे गुदड़ी के लाल,
कलाम कभी मरा नहीं करते हैं।
                          - अतुल सती 'अक्स'   

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

मृत्यु मेरी एक प्रेयसी


हर पल मुस्कुराती हुई दिखती है,
आलिंगन का रोज आग्रह करती,
नृत्य करती, हँसती इठलाती,
बाहें फैलाये मुझे बुलाती,
मुझे वो रोज नृत्य करती सी दिखती है, 
मुझे तो मृत्यु मेरी एक प्रेयसी लगती है।     

मृत्यु पश्चात् ही तो शुरू है जीवन,
एक अनंत नभ में होगा विचरण,
लेखा जोखा, पुण्य पाप,
सब बातों का होगा हिसाब,
मुझे इस जग की हर बात पराई लगती है 
मुझे तो मृत्यु मेरी अपनी, सगी लगती है। 

हर दिन हर पल सम्मुख मेरे,
प्रश्न करे जीवन बड़े गहरे,
रिश्ते नाते, जीवन और मरण,
कौन शैतान, कौन भगवन?
हर एक सवाल का जवाब लगती है,
मुझे तो मृत्यु अंतिम शराब लगती है।

तिलक टोपी पगड़ी क्रॉस वालों का,
हर मजहब की अपनी रंजिशों का,
उनके जूठे,
और झूठे हर एक साजिशों का,
एक एक करके पर्दाफाश करती है,
मुझे तो मृत्यु जीवन का सार लगती है।
                 
                     -अतुल सती 'अक्स'
      


                
  



सोमवार, 6 जुलाई 2015

बचपन

अभी थोड़ी देर ही सही,
बचपन को,
बचपने में ही रहने दो। 
चाँद तारों को तोड़ कर,
अपनी जेबों में इन्हे रखने दो। 

भरने दो अभी कुछ और देर तक,
मनमर्जी के रंग इस आसमान में,
इनकी दुनिया को अभी,
कुछ और देर तो सजने दो।
फिर,
फिर तो ये भी हम जैसे हो जायेंगे, 
ये नादानी कहीं छूट जाएगी पीछे, 
ये भी जल्दी सयाने हो जायेंगे। 
कुछ कागज पढ़ लिख कर,
कुछ कागज कमाने को,
ये भी हम जैसे दीवाने हो जायेंगे। 
अभी थोड़ी देर ही सही,
बचपन को बचपने में ही रहने दो। 
चाँद सितारों को तोड़ कर,
इन्हे अपनी जेबों में रखने दो।

गुरुवार, 18 जून 2015

बातें

ये दीनो धरम की बातें, 
ये राम की रहीम की बातें, 
ये राजनीती, इज़्ज़त बेइज़्ज़ती की बातें,
ये देश की, जात की, धर्म की चिंता की बातें,
ये ऊँच नीच, सुन्दरता  बदसूरती की बातें,
ये सबक सीखाने की, युद्ध की बातें,  
ये,
                     भरे पेट वालों के मनोरंजन की होती हैं ये बातें,             
खाली पेट,
कभी ???
  कहीं ????
किसी से??? 
कब ???
             हो पाती हैं, ये बातें??? 
                               -अतुल सती 'अक्स'

सोमवार, 8 जून 2015

त्वे ते अपरी माया मा


(त्वे ते अपरी माया मा 
जन्मो जन्मा बंधन मा)---2
बंधण चांद च मी,-----------2  
बोल तेरी हाँ च की ना ?----4
                       
ई दुनिया बटीं दूर नई  दुनिया बसोला
जख हर रंगा,हर मौसमा का फूल खिलोला            
जख बारामास बसंत ऋतू होलि 
चखुला डालियों मा  प्रेम गीत गौला,गीत गौला 
          
 मेरा  मन मा यु ही च 
आन्ख्यों तिन जू बोली च )---2        
तेरा भी जिकुड़ी मा कखी ,-----2    
यू  बथ छे च की ना?------------४ 


जुन्याली रात मा,हाथों मा हाथ होला 
चाँद तारों का संग, प्रेम गीत हम गोला 
जू सौं खाई हमुन मिली के,
वेते, जन्मो जन्म, हम निभोला,हम निभोला 

(बसगी तू यन मेरा मन मा
मेरा मन का मंदिर मा)-----------2 

जन जल्णु हो  कुई दिवु --------2     
भगवती का मंदिर मा,----------4  
                                 -अतुल सती 'अक्स'

A song of Anant Naad...