कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ मैं,
तुम पूछते हो कि क्यों लिखता रहता हूँ मैं?
क्यूंकि मैं चिल्ला नहीं सकता सरेआम,
रो नहीं सकता,
नाच नहीं सकता,
हँस नहीं सकता न सरेआम,
तुम पागल कह भी दो तो कोई बात नहीं,
पर कहीं पागल समझ कर मुझे,
तुम नज़रअन्दाज़ न कर दो,
इसी बात से बहुत डरता हूँ मैं,
इसीलिए,
इसीलिए तो,
कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ मैं।
मेरी सारी चीखें, सिसकियाँ,
सारी हँसी, सारी ख़ुशियाँ,
सिमट ही जाती हैं चुपके से,
मेरी कविताओं में,
अपना हाल-ए-दिल छुपा भी लेता हूँ,
और कुछ कुछ जता भी लेता हूँ,
रो भी लेता हूँ मैं,
तो कभी हँस भी लेता हूँ,
कभी कभी जरा गौर से सुनना मुझे,
बेहद हौले से, एकदम ख़ामोशी से,
बेतहाशा चीखता रहता हूँ मैं,
इसीलिए,
इसीलिए तो,
कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ मैं।
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