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सोमवार, 21 सितंबर 2015

सफर

इस ज़िन्दगी की दौड़ में मैंने इज़्ज़तें पायी, शोहरतें पाईं, 
पर इनको पाते पाते कुछ खो भी दिया।    
दूसरों को खुश रखने को अपना अक्स खोया, 
अक्स खोया तो धीरे धीरे जूनून खो दिया,
दौलतमंद हूँ शोहरत मंद भी हूँ,
लेकिन ऐ दोस्त सुकूनमंद नहीं,
कहते हैं सुकून जिसको ए 'अक्स',
उसी एक लफ्ज़ को जाने कहाँ खो दिया। 

आँख खुल जाती है सुबह,
तो अब उठना ही पड़ता है बेमन,
उधारी चुकानी है,
तो काम पर भी जाना ही होता है बेमन,
आलम ये है कि जवानी शुरू होती है,
बस बुढ़ापा ठीक करने को केवल, 
और बचपन का तो बचपन में ही क़त्ल कर दिया जाता है।
थकान का इस ज़िन्दगी में कोई मतलब नहीं,
मौत भी कोई अब मुक्कमल  नींद नहीं। 
बिस्तर खरीद लिया है पर नींद नहीं,
नींद का वक़्त ही खो दिया।
मकान बनाने की दौड़ में अपना घर खो दिया। 
कहते हैं सुकून जिसको ए 'अक्स',
उसी एक लफ्ज़ को जाने कहाँ खो दिया। 
                          -अतुल सती 'अक्स'  
  
         
        

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