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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

दौर



इतनी भीड़ इकठ्ठा हो गयी है,
मेरे इर्दगिर्द कि,
अब खुद का ही अक्स अज़नबी लगता है, 
खुद से ही नफरतों का,
जो अब दौर निकल पड़ा है,
वो दौर अब कहीं थमता नहीं।


समझते हैं मुझे, 
ऐसा कहते तो हैं,
पर मेरे एहसासों को नज़रअंदाज़ करते हैं,
जो दौर मेरे जज़्बात के नज़रअन्दाज़ी का,
शुरू हुआ है, 
वो दौर अब कहीं थमता नहीं।

इश्क भी है, 
रश्क भी है मुझपर,
जिगरी भी हूँ,
हबीब भी,
लेकिन तन्हाई के सलीब पर,
टांगने का जो दौर शुरू हुआ है,
वो दौर अब कहीं थमता नहीं।

चीखती हैं, 
चिल्लाती हैं,
मेरे भीतर की खामोशियाँ,
उन खामोशियों का तेज़ बहुत तेज़ शोर,
वो शोर अब कहीं थमता नहीं।
                                -अतुल सती अक्स https://www.facebook.com/AtulSati.aks

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