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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

ख़्वाबों से मरासिम


सुबह सुबह जब,
मेरी नींद के दरवाज़े पर,
एक ख्वाब ने दस्तक दी।
मैं चौंक सा गया।
किवाड़ खोले तो देखा के एक ख्वाब खड़ा है। 

लगा ऐसे मानो वो कुछ कहना चाह रहा था,
शक्ल उसकी जानी पहचानी तो थी, पर,
दिमाग पर बहुत जोर देकर भी ना पहचान पाया।
जैसे बाद मुद्दतों के कोई छुटपन का यार मिलता है,
ख़ुशी सी लगती तो है दिल को,
पर दिमाग परेशान सा करता है।
कौन है ये? जानता तो हूँ पर पहचान नहीं पा रहा।
उसका मुस्कुराता चेहरा,
मानो पुकार रहा था मुझे,
ले जाने आया था संग अपने,
मुझे इस नीले फ़लक में एक बेफिक्र परिंदे की मानिंद उड़ाने को।
घबरा के में उठ गया और पेशानी पर मेरी ठंडी कुछ बूँदें चमक उठी।
कौन था ये जाना पहचाना सा ख्वाब?
फिर याद आया कि मैंने ख्वाब देखने कबके बंद कर दिए थे।
हँसते हुए ख्वाब, ऊंची उड़ान लिए हुए ख्वाब।
इस ज़िन्दगी में ख़ुशी तो खो ही दी थी जागते हुए,
पर,
अब नींद में भी हँसते ख़्वाबों से कमबख्त मरासिम न रहा

                            - अतुल सती 'अक्स'- Atul Sati 'aks'

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