कभी इस समाज से लड़ना पड़ता है।
कभी कभी खुद से भी लड़ना पड़ता है।
इस पाशविक पुरुष प्रधान समाज के,
बिस्तर को भी गरम करना पड़ता है।
सत्ता औ ताकत पाने को, औरत को,
जाने क्या क्या नहीं करना पड़ता है।
चढ़ने वाला, चढ़ाने वाला, दोषी कौन,
दोनों ही चुप, चुप ही रहना पड़ता है।
ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं है हकीकत,
पैसे की भूख बड़ी है, चुप रहना पड़ता है।
फर्श से अर्श को जाने को इन सीढ़ीओं पर,
हर कदम पर समझौता करना पड़ता है।
आज कल जितना ऊंचा उठना है 'अक्स',
अक्सर उतना ही नीचे गिरना पड़ता है।
-अतुल सती 'अक्स'
कभी कभी खुद से भी लड़ना पड़ता है।
इस पाशविक पुरुष प्रधान समाज के,
बिस्तर को भी गरम करना पड़ता है।
सत्ता औ ताकत पाने को, औरत को,
जाने क्या क्या नहीं करना पड़ता है।
चढ़ने वाला, चढ़ाने वाला, दोषी कौन,
दोनों ही चुप, चुप ही रहना पड़ता है।
ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं है हकीकत,
पैसे की भूख बड़ी है, चुप रहना पड़ता है।
फर्श से अर्श को जाने को इन सीढ़ीओं पर,
हर कदम पर समझौता करना पड़ता है।
आज कल जितना ऊंचा उठना है 'अक्स',
अक्सर उतना ही नीचे गिरना पड़ता है।
-अतुल सती 'अक्स'
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