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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

किताब के पन्ने और वो गुलाब

जब भी ये मन उदास होता है 
मैं उस किताब के पन्ने पलटने लगता हूँ,
जिसमे कभी मैंने वो गुलाब रखा था, 
जिसे तूने अपने लबों से कभी छुआ था। 

तेरे ही रुखसार को छू कर वो गुलज़ार हुआ था। 
तुम मुस्कुराई थी, बहार बनके छाई थी।   
तेरी आँखों की वो चमक आज भी याद है मुझे। 

किस तरह से सीने से लिपट गयी थी तुम,
और ये बेकार के रिवाज़ों,
दरकते समाजों की ये,बेबस दुनिया, 
कहीं हो गयी थी गुम।      

कुछ नहीं कहा तुमने, कुछ नहीं कहा हमने,
बस साँसों का ही गीत,
गुनगुना रहे थे हम, मन में। 

न शब का ही पता था,न ही सहर का कोई इल्म। 
इब्तेदा उस इश्क की इस कदर हुई,
के अब तक उसी खुमारी में हूँ। 
पर,
कभी कभी यूँ ही दौड़ते भागते,
इस ज़िन्दगी के ख़्वाबों को पकड़ने की चाह में,  
ये  'अक्स' थक जाता है, 

तब,

जब भी ये मन उदास होता है 
मैं उस किताब के पन्ने पलटने लगता हूँ,
जिसमे कभी मैंने वो गुलाब रखा था, 
जिसे तूने अपने लबों से कभी छुआ था। 

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

मोहल्ला

मैं अब जब अपने घर जाता हूँ तो,
मेरा घर तो मिल जाता है,
पर अब मेरा वो मोहल्ला नहीं मिलता। 

बड़े हो गए हैं मोहल्ले में खेलने वाले बच्चे, 
हाथ मिलते हैं, गले भी मिल लेते हैं,
पर अब कोई दिल से नहीं मिलता।         

हर शाम की औरतों की बैठक, मर्दों की बैठक, 
वो अब सब, बस वाट्सएप्प पर मिलते हैं,
वहां अब छतों पर कोई नहीं मिलता।  
     
कभी जहाँ कभी खीर बने, या कोई ख़ास खाना,
वो एक कटोरी जो कभी पड़ोसी के घर तक आती-जाती थी,
वो कटोरी वाला प्यार नहीं मिलता।        

कभी जो जवान था मोहल्ला वो अब बूढ़ा हो गया है,
तन्हा रहकर बच्चों की तारीफ़ करते, सब बूढ़े ही दिखते हैं,
खाली घौंसलों में अब कोई पंछी नहीं मिलता।     
  
जाने वो घर हैं कि कोई क़ैदख़ाने, सब कैद हैं वहां,
नाम तो वही है जगह का, पर वहां अब जेल है,   
वहां अब वो पुराना मोहल्ला नहीं मिलता।      
                         - अतुल सती 'अक्स'
                 https://atulsati.blogspot.in/2017/04/blog-post.html