मैं अब जब अपने घर जाता हूँ तो,
मेरा घर तो मिल जाता है,
पर अब मेरा वो मोहल्ला नहीं मिलता।
बड़े हो गए हैं मोहल्ले में खेलने वाले बच्चे,
हाथ मिलते हैं, गले भी मिल लेते हैं,
पर अब कोई दिल से नहीं मिलता।
हर शाम की औरतों की बैठक, मर्दों की बैठक,
वो अब सब, बस वाट्सएप्प पर मिलते हैं,
वहां अब छतों पर कोई नहीं मिलता।
कभी जहाँ कभी खीर बने, या कोई ख़ास खाना,
वो एक कटोरी जो कभी पड़ोसी के घर तक आती-जाती थी,
वो कटोरी वाला प्यार नहीं मिलता।
कभी जो जवान था मोहल्ला वो अब बूढ़ा हो गया है,
तन्हा रहकर बच्चों की तारीफ़ करते, सब बूढ़े ही दिखते हैं,
खाली घौंसलों में अब कोई पंछी नहीं मिलता।
जाने वो घर हैं कि कोई क़ैदख़ाने, सब कैद हैं वहां,
नाम तो वही है जगह का, पर वहां अब जेल है,
वहां अब वो पुराना मोहल्ला नहीं मिलता।
- अतुल सती 'अक्स'
https://atulsati.blogspot.in/2017/04/blog-post.html
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