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मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

किताब के पन्ने और वो गुलाब

जब भी ये मन उदास होता है 
मैं उस किताब के पन्ने पलटने लगता हूँ,
जिसमे कभी मैंने वो गुलाब रखा था, 
जिसे तूने अपने लबों से कभी छुआ था। 

तेरे ही रुखसार को छू कर वो गुलज़ार हुआ था। 
तुम मुस्कुराई थी, बहार बनके छाई थी।   
तेरी आँखों की वो चमक आज भी याद है मुझे। 

किस तरह से सीने से लिपट गयी थी तुम,
और ये बेकार के रिवाज़ों,
दरकते समाजों की ये,बेबस दुनिया, 
कहीं हो गयी थी गुम।      

कुछ नहीं कहा तुमने, कुछ नहीं कहा हमने,
बस साँसों का ही गीत,
गुनगुना रहे थे हम, मन में। 

न शब का ही पता था,न ही सहर का कोई इल्म। 
इब्तेदा उस इश्क की इस कदर हुई,
के अब तक उसी खुमारी में हूँ। 
पर,
कभी कभी यूँ ही दौड़ते भागते,
इस ज़िन्दगी के ख़्वाबों को पकड़ने की चाह में,  
ये  'अक्स' थक जाता है, 

तब,

जब भी ये मन उदास होता है 
मैं उस किताब के पन्ने पलटने लगता हूँ,
जिसमे कभी मैंने वो गुलाब रखा था, 
जिसे तूने अपने लबों से कभी छुआ था। 

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