आओ तुम्हे सुनाऊँ एक कहानी,
पहाड़ी वाले बाबा की कहानी।
ऊँचे ऊँचे पहाड़ों में रहने वाला था वो,
अब रहता था ऊँचे ऊँचे मकानों में,
विकास की नदी में बह गया था वो,
पहाड़ी से कबका मैदानी बन गया था वो।
मैदान की भाग दौड़ लूट गयी उसकी जवानी।
बस यहीं से शुरू होती है हमारी कहानी।
वो बूढ़ा अकेले अकेले ही,
रोज इकठ्ठा करता मिट्टी, एक जगह,
बनाता टीला उनका,
सजाता घास और टहनिओं से उन्हें।
देसिओं के बीच का वो पहाड़ी,
बल ठैरा वो एकदम अनाड़ी।
नौकरी की बाढ़ में बगा था वो,
खुद की ही बनायी हुई,
मजबूरी के हाथों, गया ठगा था वो।
कहने को उसका नॉएडा में टॉप फ्लोर था,
पन्द्रवीं मंजिल में ,
जन किसी डांडा के टुख्खू का एक छोर था।
अपने वगत जो सही लगा किया उसने,
अपने माँबाप छोड़े तरक्की को,
और आज उसका बेटा तरक्की कर गया ,
अपनी ईजा को भी अपने दगड़ ले गया,
बाल बच्चों दगड़ी विदेश बस गया।
वो अपने आखिरी दिन उन मिट्टी के टीलों पर,
जिन्हे वो अपना पहाड़ कहता था,
अपना घर कहता था,
उन्ही टीलों पर वो बैठ वो सबको अपनी कहानी सुनाता।
बच्चों को बुलाता और सुनाता,
"वो बताता कि वो एक पहाड़ी था कभी,
अपनी पहचान खो कर,
उसे वहीँ पहाड़ों में दफना कर,
यहाँ मैदान में आया था।
पर यहाँ उसके उस त्याग को कोई समझा ही नहीं,
यहाँ सभी तो ,
अपनी पहचान दफ़न कर आये थे अपने गाँव से,
कोई कार चलाता, तो कोई उसकी कार साफ़ करता।
कोई सड़क बनाता तो कोई सड़क पर चलता,
कोई मजदूर तो मकान मालिक,
सभी अपनी पहचान दफ़न कर आये यहाँ,
सबकी थी एक ही कहानी,
पलायन पलायन पलायन की कहानी।
सब आये अपना घर बार छोड़ छोड़ कर,
और फिर यहाँ एक पहचान बनाई,
पहचान साहब की, नौकर की, गार्ड की,
कुक की, मालिक की, सर की,
छोटू की जो कभी बड़ा नहीं होगा,
मैडम की, ऊँचे लोगों की, नीचे लोगों की,
असल गँवा एक नकली पहचान बनाई,
लेकिन इस पहचान में अपनी ज़िन्दगी गंवाई।
पर,
तुम बच्चों अपनी पहचान मत गँवाना,
तुम,
हाँ तुम मिलकर बच्चों,
स्मार्ट सिटी की जगह स्मार्ट गाँव बनाना।
ताकि किसी को अपनी पहचान न पड़े गँवाना।"
वो बूढ़ा ता-उम्र बस बातें करता रहा,
पहाड़ों की, पहाड़ों की वापसी की,
ये थी कहानी पहाड़ी वाले बाबा की,
कहानी अतुल नाम के शख़्स की,
अतुल के जैसे हर एक 'अक्स' की।
- अतुल सती अक्स