अभी तक इस ब्लॉग को देखने वालों की संख्या: इनमे से एक आप हैं। धन्यवाद आपका।

यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 27 नवंबर 2017

एक कहानी इंसानियत और धरती की

मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।


मैं कैसे तुमको प्यार करूँ?

कैसे मैं तुम्हारा दुलार करूँ?

अश्कों सी मायूस राख हूँ  मैं ,

कोई आग न अब मेरे अंदर है।


मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।


बीज जो मुझ में रोपा गया,

वो रूठ गया, वो सूख गया,

बस एक खाली गुब्बार हूँ  मैं,

कोई आब न अब मेरे अंदर है।


मैं बंजर हूँ, मैं बंजर हूँ,

मैं बाँझ तुम्हारे अंदर हूँ।

        -अक्स 


http://atulsati.blogspot.com/2017/11/blog-post_27.html


शनिवार, 18 नवंबर 2017

मि अर सट्टी

मि सट्टी जन पड्युं ही रे गी उर्खुली मा,
कुटदू देखदू रे अफ्फु ते,
वक़्ता का मुसलोंन सटा सट।
जब भी जीणो मन करि,
जब भी मस्ती मा रेणौ मन करि,
त पैली बवल्दु छौ कि
बाद मा जीला, हँसला, खेलला, नचला, गाला,
अभी उम्र नि च,
फेर अब जब सब मिली त,
बोलदू छौं कि
अब उम्र नि रै,
त यन च दाज्यो भुल्ला, भुल्ली बैणी, बोड़ा बोड़ी, काका काकी,
जू भी यु वक़्त मिलणु च,
जी लिया जी भर की,
अभी उम्र नि, भोल उम्र नि राळी,
ये वास्ता जी लिया फटाफट।
निथर एक दिन तुम भी बोलला अक्सा जन,
बल,
मि सट्टी जन पड्युं ही रे गी उर्खुली मा,
कुटदू देखदू रे अफ्फु ते,
वक़्ता का मुसलोंन सटा सट।
   - अतुल सती अक्स

सोमवार, 13 नवंबर 2017

प्रद्युम्न केस और दबाव!!!

प्रद्युम्न केस में जिस १६ साल के लड़के को आरोपी बनाया जा रहा है और जो कारण निकल के सामने आ रहे हैं वो चिंताजनक हैं। सिर्फ स्कूल के एग्जाम और पैरेंट टीचर मीटिंग कैंसिल करवाने के लिए किसी की हत्या करने जैसा ख्याल से ज्यादा चिंताजनक उसके पीछे के कारण हैं।

हो सकता है कि ये सिर्फ एक मिथ्या कथा हो, या फिर उस बालक की कोई व्यक्तिगत समस्या ही हो लेकिन ये बात एक चिंताजनक समस्या की ओर इशारा तो करती ही है। 
और वो है,
दबाव!!!    
कितना ज्यादा दबाव है आजकल के स्कूल में,समाज में। स्टेटस, एजुकेशन, मार्क्स, रेपुटेशन, आगे निकलने की होड़, पीछे रह जाने का डर, बचपन का ख़तम हो जाना ये ही सब तो जिम्मेदार हैं इस दबाव के पीछे।
खुद निकम्मे रहे मातापिता को बच्चा चाहिए आइंस्टीन और साथ में अमिताभ और सचिन का मिश्रण। जब गाये तो सोनू शान किशोर रफ़ी लता आशा, जब नाचे तो ऋतिक, खाना पकाये तो संजीव कपूर सब कुछ एक ही में हो। 
आल इन वन। 
आजकल छोटे छोटे बच्चे डिप्रेशन में हैं, आप देखते ही होंगे वो कहते हैं कि वो बोर हो रहे हैं, 
अखबार उठा कर पढ़िए कितने ही केस हैं जहाँ रेप कर रहे हैं नाबालिग, नशा करना उनकी जीवन शैली है,  
लेकिन हमें क्या? बच्चा खराब तो स्कूल जिम्मेदार, समाज जिम्मेदार हम थोड़े न?

क्यों?
             
हमारी दीमक लगी शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक ढाँचा जहाँ सिर्फ अकैडमिक्स में ध्यान दिया जाता है और उसमे भी केवल फर्स्ट आना है, बाकी के लिए कोई जगह नहीं, 
वहां, जहाँ मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा का कोई स्थान नहीं वहाँ ये ही तो होगा। 

हमारे शुक्राणु जो अपने ही जैसे करोड़ों,अरबों शुक्राणुओं से आगे रेस जीते उन्हें और जीते हुए अन्य शुक्रणओं से भी आगे दौड़ना ही होगा। जो हम कभी न कर पाए उसे वो करना ही होगा, उसे दबना ही होगा इस प्रेशर में। नहीं तो वो चार लोग क्या कहेँगे?
हमें एक ऐसा पेड़ चाहिए जिसमें हर तरह के फल लगें और हमें उसका ख़याल भी न रखना पड़े। आप देखिये अपने आसपास के बच्चों को, अपने बच्चों को, कितने चिड़चिड़े हैं? 
उनको भी समझ में आता है कि केवल और केवल फर्स्ट आना है, अगर कुछ ऊँच नीच हुई तो उसके माँ बाप को शर्मिंदा होना पड़ेगा।  लोग उसे एज अ प्रोडक्ट फेल कर देंगे, रिजेक्ट कर देंगे, और तब न जाने वो या तो खुद को या फिर किसी और की हत्या करे एक और पैरेंट टीचर मीटिंग कैंसिल करवाने को, स्कूल बंद करवाने को।             
और अगर ऐसा हुआ तब अभी एक प्रद्युम्न की बलि हुई है आगे न जाने कितने और होंगे।         

ब्लॉग: https://atulsati.blogspot.in/2017/11/blog-post_13.html       

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

तुम्हे तो पता ही था सब

तुम्हे तो पता ही है सब,    
ये सुनहरा धागा मेरा बुना है,   
सुन्दर लगता है न?
मेरा ये रेशमी धागा?
पर, 
असल में,
मैं उलझा हूँ अपने ही ख्यालों में,
उलझता उलझाता, सुलझता सुलझाता,   
और,
खुद को हमेशा ही पाता हूँ जकड़ा हुआ,
अपने ही महीन रेशमी धागे से,
तुम्हे तो पता ही है सब।    

मैं नहीं तोड़ पा रहा हूँ इस बँधन को,
फँसा हूँ पर जीने को साँस भी तो लेनी है।  
और यहाँ,
हर आती जाती साँसों के स्पंदन से,
निकल रहा है ये रेशमी बँधन मुझसे,
लेकिन, 
मुठ्ठी भर ही साँसों का पिटारा है मेरे हिस्से में, 
तुम्हे तो पता ही है सब।    

साँसे मेरी हिस्से की जितनी भी मैं खर्च करता हूँ,
उतना ही इस धागे को बुनता हूँ,    
तुम्हे जो पसंद है मेरा ये धागा बुनना, 
तुम भी जानते हो और मुझे भी पता है,
ये धागा मेरे काम का नहीं,
ये तुम्हारे लिए है कीमती,
मेरा तो ये एक बंधन है मेरे गले में,
मेरी ख़त्म होती साँसों की परिणीति,
मेरे साँसों की चिता की ठंडी बुझी हुई राख,
तुम्हे तो पता ही है सब।    
     
मुझे तुमने ही तो सिखाया था रेशम बुनना,
मुझे भी कहाँ पता था कि ये शौक जानलेवा होगा,
अब दम घुट रहा है तो बता रहा हूँ मैं,
शायद कल बता भी न पाऊँ,
मेरी साँसे मेरे जीने  के लिए कहाँ थीं,
बल्कि ये तो मेरी मौत तक,
तुम्हारे लिए बस रेशम बुनने तक थीं,
मुझे  पता है,
मेरे मरने पर तुम इसे हमारा प्रेम कहोगे,
हमारा समर्पण कहोगे, 
कहोगे के, आखिरी साँस तक तुम्हारे लिए रेशम बुना मैंने,
पर,
मुझे पसंद नहीं था कभी भी रेशम बुनना,
मैं तो बस देखना चाहता था शहतूत के फूलों को,
कलिओं को, पत्तों को, शाखों को, फलों को, 
शहतूत  ही नहीं बल्कि हर घास, हर पौधे, सूखे हुए दरख्तों को,  
महसूस करना चाहता था हवा को, पानी को, तुमको, प्रेम को,
मैं तो बस जीना चाहता था, सिर्फ जीना,
अपने हिस्से की साँसों से कुछ पल का जीवन चाहता था,
खैर !!!
तुम जानते थे सब,सब कुछ,
मैंने कहा था तुमसे,
मुझे जाने दो, जीने दो,  
तुम्हारा  वादा था मुझसे कि  मुझे जाने दोगे,जीने दोगे,
मैं भी जानता हूँ तुमने क्या किया,
तुम्हे तो पता ही है सब,
कि,
तुम्हे तो पता ही था सब। 
                 - अक्स