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सोमवार, 15 जनवरी 2018

महीने के मुश्किल दिन

तुम कह रहे थे कल हँसते हुए,
मेरा मजाक उड़ाते हुए,
कि लो फिर से आ गये तुम्हारे,
महीने के मुश्किल दिन।

तुम भी तो कमाल हो,
अजीब सी खवाहिश रखते हो,
तुम चाहते हो कि वो आते भी रहे,
सोचो,
गर एक दिन कहीं वो आने बंद हुए तो....
तो,
तुम्हारी साँस अटक जाएगी,
एक पन्ने की माफिक,
तुम्हारी,
कान की झिल्ली फट जाएगी,
जो मैं कह दूँ किसी सुबह,
के कुछ दिनों से आये नहीं हैं,
महीने के मुश्किल दिन।
तुम भी तो कमाल हो,
न आएं वो दिन तो डर जाते हो,
और गर आजाएं तो,
तुम रूठ जाते हो,
तनतनाते हुए ताने पर ताने मारते हो,
पांच-छह दिनों को सालों सा जताते हो,
मन ही मन कोसते हो और पूछते हो,
आखिर कब जायेंगें ये तुम्हारे,
महीने के मुश्किल दिन।
तुम खैर समझोगे नहीं शायद,
कि,
वाक़ई में बहुत मुश्किल होते हैं,
महीने के मुश्किल दिन।

सिर्फ इसीलिए नहीं कि मैं,
रिसती हूँ रक्त लगातार,
बल्कि इसलिए मुश्किल हैं,
क्योंकि उन दिनों झेलना पड़ता है,
एक नया जंजीरों से बंधा जीवन,
झेलना होता है परायापन हर अपने से,
अपने ही घर में अछूत हो जाती हूँ मैं,
बिलकुल ही मनहूस हो जाती हूँ मैं,
तुम्हारे मानसिक अपंगता से,
मैं अपाहिज सी हो जाती हूँ,
कमजोर कहते हो न तुम मुझको,
इतना रक्त तुम बहा कर तो देखो
बस एक दिन,
एक बार,
लगातार,
मेरी ही तरह,
बंदिशों में मरते मरते,
जी कर तो देखो,
देखो तो सही,
कैसे जीती हूँ मैं,
महीने के मुश्किल दिन।
-अक्स
     

5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

..अंत पर्यन्त मेरी आँखें इतनी डबडबा गयीं कि पंक्तियों को पढ़ने के लिए पोछनी पड़ी। परिपक्व लेखन, सहृदय भाव, बेबाक प्रयास के लिए आपको बधाई और धन्यवाद। -अजन्ता

Unknown ने कहा…

शुक्र है कि ऐसे माहौल में हम बड़े नही हुए।

अक्स ने कहा…

शुक्रिया।

अक्स ने कहा…

शुक्रिया

अक्स ने कहा…

और ये अच्छा है कि हम ऐसे माहौल में नहीं रहे और आगे भी ऐसा माहौल नहीं देंगे।