वैसे तो खाली हाथ ही रहता हूँ मैं अक्सर,
पर कभी कभी कुछ पथ्थर उठा लेता हूँ हाथों में,
मेरे पीछे अक्सर लगा रहता है भूत मेरा, मेरे भूत का,
वो टोकता है, रोकता रहता है मुझे,
जाने ही नहीं देता उस दुनिया में जिसे कहते हैं भविष्य हम,
उसे ही मारके भगाने को कुछ पथ्थर उठा लेता हूँ हाथों में,
वो भाग जाए, तो तुम खींचने लगते हो मेरी डोर पकड़ कर,
पर एक बात साफ़ करदूँ मैं ऐ ज़िन्दगी!
तुमने जो सिरा मेरा थामा है न हाथों में अपने,
उसका दूसरा कोई सिरा है ही नहीं।
अनगिनत सिरे हैं जो एक गिरह से बँधे हैं,
जैसे फिरकी हो कोई।
मैं, उसी गिरह में फँसा हुआ हूँ ज़िन्दगी!
आज़ादी चाहता हूँ इस बंधन से,
क्या कहा?
आज़ादी तू दिलाएगी?
जानता हूँ मैं, तू उसे नहीं खोल पायेगी।
तू जब मौत बनकर आएगी,
खुदबखुद तू समझ जायेगी,
तेरे आते ही ये गिरह खुल जाएगी।
तब मैं खाली हाथ ही रहूँगा,
भूत का भूत, भविष्य का डर,
सब रह जायेंगे उन डोर में बंधे,
मुझे आज़ादी मिल जायेगी।
तू जब मौत बनकर आएगी,
खुदबखुद तू समझ जायेगी,
तेरे आते ही ये गिरह खुल जाएगी।
-अक्स
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