कंचों की खनक,
पोसम्पा के किस्से,
छुपनछुपाई की खिंचाई,
पकड़म पकड़ाई वाली लड़ाई,
बर्फी, सात घर की कहानी,
पिठ्ठू की गेंद से सुताई,
वो भागते भागते थक जाना,
पर मैदान का खत्म ही न होना,
पीठ पर साथी को लेकर दौड़ना,
नए घर की नींव खुदी हो कहीं,
उसकी भूल भुलैया में खोना,
रेत के ढेर पर हाथों से सुरंग बनाना,
छत पर नहीं मैदान पर पतंग उड़ाना,
आम के बागीचे में चैन से आम तोड़ कर खाना,
अमरुद के पेड़ पर छुप जाना,
कभी नदी किनारे पथ्थर को पानी पर टप्पे खिलाना,
तो कभी पथ्थर नदी पार कराना,
बारिश हुई जो कभी जोरदार तो मैदान पर,
गलिओं पर दौड़ना भागना,
कागज़ की कश्ती को तैराना,
रात को छत पर लेटकर तारे गिनना,
चाँद पर कभी परिओं को,
तो कभी बूढी दादी को सूत कातते देखना,
प्लास्टिक गला कर बॉल बनाना,
आँगन में होली खेलना,
पीछे के बाग़ में झूले झूलना,
छत पर बैठकर कागज के जहाज उड़ाना,
डेकची में ताज़ा गुनगुना दूध लेकर आना,
पापा के कंधे पर घूमने जाना,
साईकिल के आगे एक छोटी सी सीट होती थी मेरी,
पापा से आगे जिसमे मैं बैठता था ,
रात को माँ जब रोटी बनाती थी तो उसके साथ,
एक कच्ची पक्की छोटी सी रोटी बनाता था।
सुनो प्रिये !!!
जब अपने बच्चों को जब हम अपने बचपन के ये किस्से सुनाएंगे,
तब क्या वो सच में इसे सच मान पाएंगे?
कहीं नाराज़ हो कर ये न कहें कि क्यों हमने उन्हें अपना बचपन नहीं दिया?
क्यों छीन लिया हमने उनसे उनका अलसाया मासूम बचपन?
क्यों नहीं है चाँद पर वो बुढ़िया सूत काटने वाली?
क्यों नहीं होती है बारिश अब कागज के नाँव वाली?
क्यों नहीं है अब स्वत्रंत बाल मन?
क्यों नहीं अब घर में मेरे आँगन?
क्या जवाब देंगे हम?
बताओ प्रिये,
जब अपने बच्चों को जब हम अपने बचपन के ये किस्से सुनाएंगे,
तब क्या वो सच में इसे सच मान पाएंगे?
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