अगर ये समस्त ब्रह्माण्ड जिसमे असंख्य तारे, सूरज, ग्रह, आकाशगंगायें हैं ये वास्तव में सिर्फ ब्रह्म अंडे हुए तो?सोचो कि ये सारा ब्रह्माण्ड किसी स्त्री का गर्भ हुआ तो? वाक़ई में जिसे हम भगवान कहते हों वो एक स्त्री, एक माँ हुई तो? और हम सब उस स्त्री के गर्भ में रहने वाले भ्रूण, या अंडे या कोशिका मात्र हुए तो?गर्भ में भी तो अँधेरा ही होता है। और गर्भ में हमें नाभि नाल से सारा भोजन मिलता है लेकिन शुरुवात जीवन की, उन्ही अण्डों से होती है। गर्भ में हम कभी कल्पना नहीं कर सकते कि गर्भ से बाहर कोई जीवन हो सकता है। कि कोई माता भी हो सकती है? कोई पिता भी हो सकता है? उस वक़्त तो हम उस अँधेरे गर्भ को ही सारा संसार मानते हैं, जैसे इस वक़्त ब्रह्माण्ड को। क्या पता मृत्यु के पश्चात हमें माता (भगवान) के दर्शन हों जिसकी हम अभी भी कल्पना नहीं कर सकते। अभी हम उसके गर्भ में हैं, अँधेरे में और सोचते हैं कि मृत्यु के बाद कैसा जीवन? इस ब्रह्माण्ड के बाद कैसा जीवन? क्या पता जीवन हो? क्या पता मृत्यु या फिर इस ब्रह्माण्ड की मृत्यु एक मृत्यु न होकर एक प्रसूति व्यवस्था हो?जिन्हे हम ब्लैकहोल कहते हैं वो इस विशाल स्त्री का योनि मार्ग हो जहाँ से उस ग्रह का या उस ब्रह्माण्ड का नया जीवन प्रारम्भ होता हो? इस जगत जननी से अनेकोनेक मार्ग हों जो हमें बाहर लाते हों। एक ब्रह्माण्ड से दूसरा ब्रह्माण्ड का कोकि मार्ग हो। हम जितना जानते हैं उतना ही तो मानते हैं, जैसे गर्भ में हम जितना समझते हैं उतनी ही दुनिया लगती है लेकिन बाहर दुनिया अलग होती है ठीक उसी प्रकार क्या पता जितना ब्रह्माण्ड हम समझते हैं उससे बाहर एक नया ब्रह्माण्ड हो और ये ब्रह्माण्ड सिर्फ ब्रह्म अण्ड हो जो भ्रूण बनकर जन्म लेगा और साक्षात्कार कर पायेगा अपनी जगत जननी माता का।कल्पना कुछ भी हो सकती है, और सत्य भी। लेकिन कहीं वाक़ई में ये सत्य हुआ तो? क्या कहते हो?
-अतुल सती 'अक्स'
इस ब्लॉग में शामिल हैं मेरे यानी कि अतुल सती अक्स द्वारा रचित कवितायेँ, कहानियाँ, संस्मरण, विचार, चर्चा इत्यादि। जो भी कुछ मैं महसूस करता हूँ विभिन्न घटनाओं द्वारा, जो भी अनुभूती हैं उन्हें उकेरने का प्रयास करता हूँ। उत्तराखंड से होने की वजह से उत्तराखंडी भाषा खास तौर पर गढ़वाली भाषा का भी प्रयोग करता हूँ अपने इस ब्लॉग में। आप भी आन्नद लीजिये अक्स की बातें... का।
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गुरुवार, 30 जून 2016
ब्रह्माण्ड किसी स्त्री का गर्भ - -अतुल सती 'अक्स'
शुक्रवार, 24 जून 2016
११ रूद्र - जानकारी
आज रूद्र के बारे में जान्ने का प्रयास करते हैं। रूद्र वो नहीं हैं जिन्हे हम कैलाश में बैठे हुए मानते हैं। ११ रूद्र होते हैं, सभी त्रिशूल धारी, सभी बाघंबर सभी क्रोध और तूफ़ान के, विनाश के देवता। सभी अघोरी। सभी देवताओं की तरह ये भी कश्यप ऋषि की संतान हैं। जैसे विष्णु, इंद्र इत्यादि १२ आदित्य हैं वैसे ही ये ११ रूद्र हैं।
नोट: ये ११ रूद्र सिर्फ इसी मन्वन्तर में जो कि सप्तम मन्वन्तर (१ मनु का जीवनचक्र) है। हर मन्वन्तर में एक नया मनु, एक नया इंद्र, नए सप्तऋषि होते हैं।
कुछ जगह इन्हे मारुत भी कहा गया है जो कि इंद्र के सेवक हैं और कुछ जगह मरूत शिव के सेवक हैं। एक मत नहीं है तो इसे रहने देते हैं।
- वैदिक- सनातन धर्म अनुसार ३३ प्रकार के देव हैं, कश्यप ऋषि और अदिति की संतान हैं। जिनमे १२ आदित्य, ८ वसु, २ आश्विन, और ११ रूद्र हैं। इन्ही का जिक्र रामायण तथा वामन पुराण में हुआ है।मत्स्य पुराण के हिसाब से ब्रह्मा तथा सुरभि ११ रूद्र के पिता माता हैं।
१) कपाली२) पिंगला३) भीम४)विरुपक्स५) विलोहिता६) अजेश७)शासन८) शस्त९) शम्भू१०) चण्ड११) ध्रुवइन ११ रुद्रों ने देवासुर संग्राम में विष्णु का साथ दिया।
- वैदिक कहानिओं के हिसाब से रूद्र (शिव) एक राजकुमार थे और ११ रूद्र उनके मित्र,सहकर्मी,साथी,सहायक थे(शतपथ ब्राह्मण श्रुति)
- ऋग्वेद के अनुसार ये ११ रूद्र धरा और अम्बर के बीच के हिस्से के देवता हैं।
- एक अन्य कथा के अनुसार,विष्णु पुराण के मतानुसार शिव का जन्म भगवन ब्रह्मा के गुस्से से हुआ। शिव अर्धनारीश्वर रूप में हुआ, आधा शरीर पुरुष का और आधा शरीर स्त्री का। शिव ने खुद को दो हिस्सों में बाँटा अलग अलग पुरुष(शिव/पुरुष) और स्त्री(शक्ति/प्रकृति) रूप में।
पुरुष भाग के आगे ११ और हिस्से हुए। जो आगे चल कर रूद्र कहलाए। जिनमे कुछ बहुत गोरे और कुछ बहुत ही काले थे।
१) मन्यु
२)मनु
३)महमसा
४)महान
५) सिव
६) ऋतुध्वज
७) उग्ररेतस
८) भाव
९) काम
१०)वामदेव
११) धृतव्रत
स्त्री ने अपने शरीर से ११ रुद्राणी प्रकट की। जो कि रुद्रों की पत्नी हुईं।
१) धी
२) वृत्ति
३)उसना
४) ऊर्ण
५) न्युता
६) सर्पीस
७) इला
८) अम्बिका
९) इरावती
१०) सुधा
११) दीक्षा
- अन्य पुराणों में ११ रूद्र कुछ इस तरह से हैं,
१)अजा २) एकपत ३) अहिरबुध्न्य ४) तवस्ता ५) रूद्र ६) हर ७) शम्भू ८) त्रयंबक ९) अपराजित १०) ईशान ११) त्रिभुवन
गुरु द्रोण पुत्र अश्वथामा रुद्रावतार है। अजेय अमर और अगले मन्वन्तर (अष्टम) में एक सप्तऋषि।
ये ४ तरह के देवताओं का संयुक्त रूप जो कि रूद्र ही थे।
१) यम (मृत्यु)
२) काम (प्रेम)
३) क्रोध(गुस्सा)
और
४) रूद्र(विनाश)
स्वयं भीष्म और कृष्ण जानते थे कि अगर महारथी अश्वथामा को क्रोध दिलाया गया या वो युध्ध में पूरी शक्ति से आया तो वो स्वयं शिव हो जायेगा और फिर उसे कोई नहीं हरा पाएगा। अश्व्थामा के आदेश पर ही ११ रुद्रों ने पांडवों की सेना में हहकार मचाया था।
शुक्रवार, 10 जून 2016
उत्तराखंड और पलायन
आज उत्तराखंड एक बड़ी ही विकट समस्या से जूझ रहा है और वो है पलायन। पलायन से उत्तराखंड को या कहिये की पहाड़ को बहुकोणीय नुक्सान हो रहा है जो की आने वाले सालों में बहुत ही ज्यादा घातक रूप लेलेगा। अभी तो सब कुछ देखने में ठीक ठाक ही लगता है लेकिन वास्तव में परिस्थितियां बहुत ही विकट रूप ले रहीं हैं।पहाड़ों में तीन तरह का पलायन हो रहा है।१) राज्य से पलायन२) गावों से पलायन३) पहाड़ों की ओर पलायन१) राज्य से पलायन: कहावत है न "पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं आती।" आज का पहाड़ी युवा इतना ज्यादा पड़ा लिखा होने के बावजूद राज्य से बाहर नौकरी करता है। इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, होटल मैनेजमेंट, सेना और भी कई अन्य क्षेत्रों में काम कर रहा युवा राज्य से बाहर है और मजबूरी में उसे वहीँ बसना पड़ रहा है। अपनी राज्य की पहचान खोने के साथ साथ वो युवा अपनी खुद की भी पहचान खो रहा है। राज्य की विफलता प्रदर्शित करती इस विकट समस्या का हल कोई बहुत बड़ी मेहनत का काम नहीं है। अगर उत्तराखंड सरकार यहाँ इसी राज्य में रोजगार के अवसर पैदा करती तो आज का पहाड़ी युवा यूँ दर दर की ठोकर न खा रहा होता।२) गावों से पलायन: दूसरी विकट समस्या है गावों का खाली होना, छोटे शहरों का खाली होना। गावों का विकास आज तक नहीं हो पाया पहाड़ों में जिसके फलस्वरूप गावों में रहने वाले लोग या पहाड़ों में नौकरी करने वाले लोग ऐसे शहरों का रुख कर रहे हैं जहाँ अच्छी सुविधाएं हों। स्कूल हों, बाजार हों, अस्तपताल हों। लेकिन इसकी वजह से बहुत ही विकत समस्याएं उत्पन्न हो रहीं हैं जिसके परिणाम बहुत ही गंभीर हो सकते हैं। आज शहरों की हालत देखिये बहुत ही ज्यादा कंजस्टेड हो गए हैं। इतना ज्यादा भार पड़ रहा है कि दैनिक सुख सुविधाओं की पूर्ती करना ही भारी हो रहा है। भीड़ बढ़ती ही जा रही है। बैलेंस बिगड़ रहा है। जरूरी है की गावों में और छोटे शहरों में सारी सुविधाएं दी जाएँ।३) पहाड़ों की ओर पलायन:गावों में बाहर के लोग बस रहे हैं। और ये ही सबसे खतरनाक पलायन है। व्यापार की क्षमताएं देख कर बाहर के लोगों की भी तादाद बढ़ती ही जा रही है। आप अपने ही आसपास देखिये हर तरह की दूकान वाले और फल रेहड़ी वाले, मजदूर,किस्म किस्म के बाबा लोग और दूसरे कई लोग जो की पहाड़ी नहीं हैं,उनकी तादाद बढ़ती ही जा रही है और पहडिओं की घटती ही जा रही है। अजीब विडंबना है पहाड़ी लोग अब पहाड़ में नहीं रहते हैं और बाहर के लोग पहाड़ों में। एक वक़्त ऐसा भी आएगा जब पहाड़ों में हमें कोई पहाड़ी नहीं मिलेगा। न उनका घर मिलेगा न उनकी जमीन। इस दुर्दशा के लिए उत्तराखण्डी ही जिम्मेदार हैं।सबसे ज्यादा नुक्सान हुआ है जमीन बेच कर, पलायन तो किया ही अपनी जमीनें बाहर वालों को बेच कर पहाड़ी पने पाँव पर कुल्हाड़ी नहीं बल्कि कुल्हाड़ी पर पाँव मार रहे हैं। श्रीनगर गढ़वाल में ही बाहर के कितने लोग बस गए हैं? कोटद्वार, देहरादून, हल्द्वानी यहाँ तो पहाड़ी से जायदा किसी दिन बाहर के लोग हो जायेंगे। खैर ये तो शहर हैं, लेकिन गाँव गाँव में अब बाहर के लोग बस गए हैं, नगरासू,कौसानी, नैनीताल,बद्रीनाथ,गोविंदघाट, भीमताल के बाद के इलाके सब बाहर के लोगों ने ले लिए हैं, क्यूंकि गाँव के लोगों ने, बाहर बसने के लिए, शहर में बसने के लिए, या फिर थोड़े से धन के लिए अपनी बेशकीमती जमीन, अपने घर बेच दिए हैं। आप देखिये पहाड़ों में अब पहाड़ी कम और बाहर के लोग ज्यादा हैं।उत्तराखंड में पहाड़ी इलाकों से ज्यादा मैदानी इलाके के विधायक हैं। पहाड़ी से ज्यादा देसी लोग हैं और इस तरह से विधानसभा में तो पहाड़ का विकास सोचना ही बेमानी है।असम में जब दंगे हुए थे, असामी बनाम बाहर के लोग, उस वक़्त एक पत्रिका में एक लेख पढ़ा था कि अगला दंगा इस तरह का उत्तराखंड में हो सकता है। ऐसी नौबत आए उसके लिए सोचिये कि हम क्या कदम उठाएं?अगर हम अपने पहाड़ का विकास करें। अपनी जमीन न बेचें, सरकार कुछ योजनाएं लाए रोजगार की। शहरों और गावों का विकास करे। और हम लोग अपनी पहचान का सम्मान करें पहाड़ का सम्मान करें तो ही पलायन कुछ हद तक कम हो पायेगा। आपका क्या ख़याल है? हम लोग अपनी जड़ों से बहुत दूर तो जा ही रहे हैं, पर जमीन बेच कर अपनी ही जड़ों में मठ्ठा भी डाल रहे हैं।अभी शायद समस्या बड़ी न लगे पर जरा गौर से सोचिये पहचानिये समस्या लगातार बढ रही है।नोट: ये लेख किसी के विरोध में नहीं है बल्कि ये पहाड़ी लोगों के लिए एक आत्मविवेचना के लिए है। कृपया इसे अन्यथा न लें। हम लोग अपनी जड़ों से दूर जा रहे हैं। और बाहर के परजीवी हमारी जड़ों में सेंध लगा रहे हैं।
मंगलवार, 7 जून 2016
NRI and NRU(नॉन रेजिडेंट ऑफ़ उत्तराखंड)
उत्तराखण्डी भी आजकल बल NRI हो गए हैं बल, जैसे NRI छोड़कर विदेश में बस जाते हैं और वहां बस कर घड़ियाली आँसू बगाते हैं, वैसे ही हाल बल इन NRU (नॉन रेजिडेंट ऑफ़ उत्तराखंड) वालों का हो रखा है।
जैसे NRI अमेरिकन कहते हैं (वी आर अमेरिकन ड्यूड, ऑवर पैरंट्स वर इंडियन) ठीक यन्नी एक भेजी ने बोला था बल मैं देल्लीआएट हूँ, जोशी नहीं शर्मा हूँ। मेरे फॉरफादर थे उत्तराखण्डी, मैं नहीं हूँ।
इसीलिए NRU कहा उन लोगों को, जो बल ४-५ साल से घौर नहीं आये, ( टेम नी था बल ) और हर साल २-३ बार भेर देस मा या विदेस मा घूमने जाते हैं, पर अपने गाँव नहीं आते हैं।
ऐसे NRU से मैं पूछना चाहता हूँ बल ऐसी भी क्या मजबूरी की छुट्टिओं में, गोवा, बैंकाक, दुबई या शिमला, कश्मीर तो हर साल जा सकते हैं पर उत्तराखंड में अपने मरते गाँव में नहीं आ सकते।
दो तीन दिन भी भारी है अपने गाँव में बिताना, अपने उत्तराखंड में बिताना तो इतना दुःख भारीपन मत रखो ना अपने सीने में, जैसे अपनी जाति, अपनी पहचान छुपा कर बाहर "शर्मा" बन कर घूमते हो ठीक वैसे ही अपने आप को उत्तराखण्डी न बोल कर कुछ और बोला करो।
मत बोलो खुद को उत्तराखण्डी, उत्तराखण्डी होने का मतलब केवल दारु पी कर किसी कौथिग या गीत संगीत में नाचना भर नहीं है। उत्तराखण्डी होना है जब आप साल में कम्सेकम एक बार उत्तराखंड आओ कुछ दिनों के लिए। अपने बच्चों ते बताओ कि कख छन जड़ें हमारी? क्या है हमारी बोली? जो उत्तराखण्डी होगा न वो कभी NRU नहीं होगा।
अच्छा NRU और NRI में एक समानता और है और वो है पंकज उधास और नरेंदर सिंह नेगी (दोनों एक ही हैं) "चिठ्ठी आयी है "सुन कर घड़ियाली आंसू बगाने वाले, "बसंत ऋतू मा जेई" में रोते हैं। कितने ही बसंत चले गए बल तुम ना आए। ना NRI ही आये न ही NRU ही आये। हाँ पर विदेशी जरूर आये (नेपाली- बांग्लादेशी) देसी ना आ पाए। और जब येकि बजह मी खुजोन लगी तो मैंने पाया कि एक राक्षश है बल पलायन नाम का, जो बल "ब्रेन ड्रेन" कर रहा है। चलो इससे ये बात तो पता चली बल कि हम पहाड़िओं पर ब्रेन भी होता है। वो होता है न अखरोट के जन हाँ वही। सही बींगे आप।
अब जैसे NRI चर्चा करते हैं न भारत के बारे में, पलायन के बारे में(ये वही लोग हैं जिन्होंने खुद अपना देश छोड़ा, और अब उसकी दुर्दशा पर रोते हैं) ठीक वैसे ही बल NRU वाले भी होते हैं। और हाँ जाते जाते बताता हूँ कि इनकी इस चर्चा का रिजल्ट भी सेम ही होता है। कोई नहीं लौटके आता, और देश और प्रदेश का हाल बद से बदतर होता जाता है, और पलायन होता जाता है।
पलायन का घड़ियाली आँसू
जै गौं कुठार ते,
जन्मभूमी का प्यार ते,
अटल हिमाल ते,
अपरा पहाड़ ते,
बद्री केदार ते,
झुमैलो मन्याण ते,
तुम जु भैर देस बटीं,
संगति भट्याणा छन,
उत्तराखंड से भैर,
नकली उत्तराखंड बनौणा छन,
तौला त जरा,
तुम उत्तराखंड ते मिटे की,
यु कन उत्तराखंड बनौणा छन।
पलायन का घड़ियाली आँसू,
अब किले बगोणा छन?
बोतल बंद पाणी पीण वाला,
ठण्डु धारु ते किले खोज्याणा छन?
फ्लैट का कुमचरि मा फंस्यां फंस्या,
अपरि निमदरी वाळु घौर ते,
बोला अब किले रोणा छन?
अपरा बच्चों ते हिंदी अर अंग्रेजी सिखौण वाला,
बोला अब किले अपरि दूधबोली ते धै लगौणा छन।
तब ता नि ऐ रुए,
जब छोड़ि ते गौं,
उन्दार लग्युं छौ बाटु।
तब ता नि याद ऐ बुए,
जब देस मा बैठी की,
ठंडी हवा खाणू छौ ,
तब किले नि ऐ रुए,
जब पित्रों की कुड़ी टूटणी छे,
अर तू अपरू फ्लैट सजोणू छौ।
खैर तू याद रखी कि गौंन तुएते नि छोड़ि छौ,
वु तू ही तो छौ,
जेन गौं-घौर छुवाडी छौ,
अपरा जोड़ ते पलायन का दथडन काटी छौ।
तब ता भिजां ख़ुशी हुए छै,
जब भेर देस मा नौकरी लगी छै,
ख़ुशी ता तुएते तिबारि दां भि भिजां हुए छै,
जब तेरु नौन्याळ देस मा ही हुए छो,
अर तू ब्वारी दगड़ी वखि बसगी छै।
हर दुई महीणा मा घौर औणौ की सौं खाई छै,
पैली ता कै का ब्यौ मा कभी कभार,
निथर देबता नचै मा घौर ऐ ही जांदू छौ,
अब ता नाति-नातिणिओं का खातिर,
दादा दादि ते वक्खि देस मा जाण पडदु,
निथर पैलि बच्चों की छुट्टीओं मा तू घौर ता ऐ ही जांदु छौ।
पलायन नाम का दथडु ते तब तू खूब पल्याणु छौ।
खैर !!! तू याद रखी कि गौंन तुएते नि छोड़ि छौ,
वु तू ही तो छौ,
जेन गौं-घौर छुवाडी छौ,
बुए बुबा ते, भै-भुल्ली ते,
रोंदा पन्देरों ते,
अपरा बालपने की यादों ते,
उर्ख्यळियों का किस्सों ते,
शिकारे बाँट का हिस्सों ते,
साली मा धै लगोंदी गौड़ी ते,
रामी बोड़ी की गाल्यों ते,
पल्ले छाले का गौं की पन्यारी ते,
भडु मा पकी दाल ते,
कफली, चेंसु की रस्याण ते,
झुमेलो अर मन्याण ते,
देवी देबतौं का निशाण ते,
वु तू ही तो छौ,
जेन गौं-घौर छुवाडी छौ,
गौंन तुएते कब्बि नि छवाडि लाटा,
वु त आज भी तुएते भट्याणु च ,
वु तब भि त्वेते भट्याणु छौं,
तुएते घौर बुलौणु छौं।
सुखणु लग्युं च अब वु बौड़ कु डालू,
जै मा तेरा पित्रों की याद छै,
खैर तू याद रखी कि गौंन तुएते नि छोड़ि छौ,
वु तू ही तो छौ,
जेन गौं-घौर छुवाडी छौ,
अपरा जोड़ ते पलायन का दथडन काटी छौ।
सोमवार, 6 जून 2016
मानव-जानवर
जो एक माँ को उसके बच्चे से दूर करता है,
खुद के लिए उसके बच्चे को भूखा रखता है,
उसके बच्चे के हिस्से का दूध पी जाता है,
जो पंछिओं के अजन्मे बच्चों को,
तवे पर फ्राई कर, कभी उबाल कर,
तो कभी कच्चा ही खा जाता है।
गौ माँ है, ये भी सुनाता है,
उसी माँ के बच्चे को,पथ्थर से पीट पीट कर,
नपुंसक बना, खेतों में जोत कर आता है।
मार कर जानवरों को, बेचकर आता है,
कभी उनका माँस खाता है,
तो कभी अपने पर उनकी चमड़ी सजाता है।
पवित्र जगह पर चमड़े की मनाही का,
अजीब फरमान सुनाता है, और उसी जगह खुद,
चमड़े के तबले,ढोलक और ढोल बजाता है।
नदियां माँ हैं, देवी हैं, जीवन दायिनी हैं,
और फिर अपनी माँ के मुख पर,
अपना ही मल मूत्र बहाता है।
अपने सजावट के लिए,
अन्य जानवरों को मारता जाता है,
अपने घरों की बसावट के लिए,
दूसरों के घर मिटाता जाता है।
जानवरों को पिंजरे में कैद कर,
अपने बच्चों को दिखा दिखा कर,
हर बात की आज़ादी का पाठ पढ़ाता जाता है,
देखा है कभी ऐसा जानवर कहीं सृष्टि में?
जो बाते तो बड़ी बड़ी करता है विकास की,
पर हर पल सिर्फ विनाश करता जाता है,
वो ही जानवर तो मानव कहलाता है।
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