कभी कभी बस यूँ ही,
तुमको देखता हूँ,
तो ,
बड़ी तसल्ली सी होती है।
गोया, रूह ,जिस्म से रुखसत होने ही लगी थी,
कि तुम आ गयी।
रुह,
कुछ देर और रुक गयी,
इस जिस्म में,
खैर! एक न एक दिन तो,
जाएगी ही 'अक्स',
पर तुमको देख बड़ा सुकून,
नसीब हुआ मुझे।
आज भी जब कभी,
तुमको देखता हूँ ,
तो ,
बड़ी तसल्ली सी होती है।
जैसे, कभी भीड़ में,
कहीं खो जाता है कोई बच्चा,
और निगाहें तलाशने लगती हैं,
किसी अपने को,
रात काली है,
घुप्प अँधेरा है,
शोर है,भीड़ है।
बदहवासी का सा माहौल है और तभी,
तुम दिखाई दी ,
मेरी ओर आती, बाहें फैलाये,
मुझे पुकारती,
जब तुम्हे देखा तो बड़ी राहत सी हुई।
आज भी जब कभी,
तुमको देखता हूँ तो बड़ी तसल्ली सी होती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें