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बुधवार, 30 नवंबर 2016

बोलो कौन ?

अफरातफरी बदहवासी में, 
वो कह रहे हैं कि हम शांति चाहते हैं,
जो खुद ही दंगे करा रहे हैं। 

दुश्मन छाती पर चढ़ आया है, 
वो कह रहे हैं मुहँतोड़ जवाब दिया जायेगा,
जो असल में मुहँ छुपा रहे हैं।

स्त्री सशक्तिकरण होगा,
वो कह रहे हैं स्त्री सम्मान सर्वोपर्रि है,
जो शहर में कोठे चला रहे हैं। 

देश फिर होगा सोने की चिड़िया,
वो कह रहें हैं गरीबी, बेरोजगारी मिटाएँगे, 
जो विदेशी खाते छुपा रहे हैं। 
                    - अतुल सती 'अक्स'

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

अखबार

आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में। 

खबर तरक्की की,
खबर खुशहाली की,
आज कहीं डाका न पड़ा,
आज कहीं कोई न मरा,
न कहीं कोई कोई बहु जली,
न ही कहीं कोई शहीद हुआ,

हँसते हुए इंसानों के चेहरे,
न हिन्दू और न मुसलमानों के चेहरे,
खेत खलिहानों के सुंदर रंग,
पहाड़ों जंगलों समुंदरों की उमंग,
नहीं आज कोई सड़क पर मरा,
न ही कोई ठण्ड से अकड़ कर मरा,
बिना स्मोग के, गुनगुनी धूप में,
कभी ठंडी बयारों के रूप में,
           
आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में। 
          
नहीं तो हमेशा दुर्गंध ही थी आती,
कूड़े के जलने की,
बहुओं के जलने की,
खून से लिपटा आता था,
हर रोज़,
मेरे घर अख़बार आता था,
हर रोज,
शहीदों की ख़बरों से पटा हुआ ,
अस्मतों की लूट से लिपटा हुआ,
डरा डरा खुद और मुझको डराता हुआ,
हर रोज़।   
वही खबरें पढ़ो बार बार, 
पढ़ो !!! डरो !!! मरो !!!
हर रोज। 

जब भी खोलता था मैं,
अख़बार,
बेहिसाब चीखता,
सिसकता वो,
लगातार,
कहीं कोई मरा,
रोता बिलखता,
परिवार,
कहीं नेता चोरी करते पकड़ा,
कहीं कोई चोर नेता बनके निकला,
पहनता हार, 
बाबा जी के चमत्कार, 
बाजार से किसानों की हार,
लहू से भीगी,
सूखें खेतों की,
कातर पुकार,
कान फटने लगते थे,
सुन सुन के ये ख़बरें,
हर रोज, 
लगातार,  
बार बार। 

हर बार हर रोज ख्वाब में,
हर रोज के इस डरावने एहसास में,
बेतरतीब दुनिया के,
बेतरतीब खाव्ब में,  
आज आया कुछ सुकून,    
जब,  
आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में।           
  
पर तभी नींद टूटी,
सुनके अखबार  घंटी,
ख्वाब कहीं हक़ीक़त तो नहीं हुआ?
ये सोच कर, अखबार खोल लिया,
के तभी  कुछ बूँद लहु की टपकी फिर आज,
फिर वही चींखें, वही ख़ामोशी,
फिर वही लाश जलने की गंध,
लूट खसोट हत्या की दुर्गन्ध, 
फिर वही आँसुओं की कहानी,
कोड़ियों के दाम बिकती जवानी,
फिर हो गया मासूम बच्ची का बलात्कार,
फाड़ के, जला के, राख मिटटी में दबा के,
दफ़न कर दिया मैंने वो बाजार,
जो लाता था मनहूसियत मेरे घर,
कहते हो जिसे तुम अखबार। 

कुछ भी नहीं बदला,
आज के समाचार में,
झूठ निकला सबकुछ,
जो भी, 
आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में।       
                    

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

किले नि होन्दु?


थक गयूं मी यखुलि रै रै की, क्वी चमत्कार किले नि होन्दु?
रोज सुबेर, मी बीजी त जांदू छौं, पर मी ज़िंदू किले नि होन्दु?

अपणो का दियां दर्द मा जी जी कर, अब यन आदत हुएगी मैते,
अब जब कोई बिराणू दर्द भी देन्दुं च, त दर्द किले नि होन्दु ?

मेरा भीतर अब भी कोई ज़िंदू छैं त च, पर मी अब ज़िंदू नि छौं,     
वैध जी नाड़ी टटोली की सोचणा छाँ कि मी ज़िंदू किले नि होन्दु?         

सरी उम्र ब्याज मा ब्याज ही देण लग्युं च मी,तेरी माया का कर्जा मा,  
मी खुद खत्म हुएगी, पर तेरु यु माया कु कर्ज़ खत्म किले नि होन्दु?   
     
यु समाज च जज ,मेरा आँसू छन गवाह,अर दिल च मेरु वकील,
मिन हार जाण यु मुकदमा 'अक्स', यु रफा दफा किले नि होन्दु?
                                                               -अतुल सती  'अक्स'

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

काश!!!

काश!!! दूसरों की बेमानी पर, 
हम जान कर अन्जान न होते।
माना कि सब ईमानदार नहीं हैं,
पर अगर ये कुछ बेईमान न होते,
तो हम यूँ कतारों में लगे लगे,
हैरान न होते,यूँ परेशान न होते।

काश!!! दूसरों की बेमानी पर, 
हम जान कर अन्जान न होते।

मंगलवार, 15 नवंबर 2016

मेरे जवाब - आपके सवाल

बेफजूल बातों से, लोगों को,बहकाता क्या है?
क्या तू खुद है,और लोगों को,बताता क्या है?

कब का बाहर,कर चुका है,तू  खुदा को,दिल से,
तो अब अज़ानो में,उसे आवाज़,लगाता क्या है?

यूँ तो भेजा था,तुझे उसने, बना के तो इंसान,
पर नाम-ए-दीन पर तू,खुद को,बनाता क्या है?

एक जावेदा सी ज़िन्दगी बक्शी है तुझको उसने,
तू इश्क छोड़,नफरत के, कांटे उगाता क्या है?

सियासत से,सरेआम क़त्ल कर,इंसानियत का,   
लाशों ढेर पर, बैठ,अब ये अश्क बहाता क्या है?

धीरे धीरे तू भी इस शहर सा बन रहा है 'अक्स',
दिल तेरा क्या कहता है और तू सुनाता क्या है?
                                      -अतुल सती 'अक्स'