आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में।
खबर तरक्की की,
खबर खुशहाली की,
आज कहीं डाका न पड़ा,
आज कहीं कोई न मरा,
न कहीं कोई कोई बहु जली,
न ही कहीं कोई शहीद हुआ,
हँसते हुए इंसानों के चेहरे,
न हिन्दू और न मुसलमानों के चेहरे,
खेत खलिहानों के सुंदर रंग,
पहाड़ों जंगलों समुंदरों की उमंग,
नहीं आज कोई सड़क पर मरा,
न ही कोई ठण्ड से अकड़ कर मरा,
बिना स्मोग के, गुनगुनी धूप में,
कभी ठंडी बयारों के रूप में,
आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में।
नहीं तो हमेशा दुर्गंध ही थी आती,
कूड़े के जलने की,
बहुओं के जलने की,
खून से लिपटा आता था,
हर रोज़,
मेरे घर अख़बार आता था,
हर रोज,
शहीदों की ख़बरों से पटा हुआ ,
अस्मतों की लूट से लिपटा हुआ,
डरा डरा खुद और मुझको डराता हुआ,
हर रोज़।
वही खबरें पढ़ो बार बार,
पढ़ो !!! डरो !!! मरो !!!
हर रोज।
जब भी खोलता था मैं,
अख़बार,
बेहिसाब चीखता,
सिसकता वो,
लगातार,
कहीं कोई मरा,
रोता बिलखता,
परिवार,
कहीं नेता चोरी करते पकड़ा,
कहीं कोई चोर नेता बनके निकला,
पहनता हार,
बाबा जी के चमत्कार,
बाजार से किसानों की हार,
लहू से भीगी,
सूखें खेतों की,
कातर पुकार,
कान फटने लगते थे,
सुन सुन के ये ख़बरें,
हर रोज,
लगातार,
बार बार।
हर बार हर रोज ख्वाब में,
हर रोज के इस डरावने एहसास में,
बेतरतीब दुनिया के,
बेतरतीब खाव्ब में,
आज आया कुछ सुकून,
जब,
आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में।
पर तभी नींद टूटी,
सुनके अखबार घंटी,
ख्वाब कहीं हक़ीक़त तो नहीं हुआ?
ये सोच कर, अखबार खोल लिया,
के तभी कुछ बूँद लहु की टपकी फिर आज,
फिर वही चींखें, वही ख़ामोशी,
फिर वही लाश जलने की गंध,
लूट खसोट हत्या की दुर्गन्ध,
फिर वही आँसुओं की कहानी,
कोड़ियों के दाम बिकती जवानी,
फिर हो गया मासूम बच्ची का बलात्कार,
फाड़ के, जला के, राख मिटटी में दबा के,
दफ़न कर दिया मैंने वो बाजार,
जो लाता था मनहूसियत मेरे घर,
कहते हो जिसे तुम अखबार।
कुछ भी नहीं बदला,
आज के समाचार में,
झूठ निकला सबकुछ,
जो भी,
आज सुबह एक ख्वाब में,
मैं पढ़ रहा था कुछ खबर,
आज ही के अखबार में।