बेफजूल बातों से, लोगों को,बहका ता क्या है?
क्या तू खुद है,और लोगों को,बताता क् या है?
कब का बाहर,कर चुका है,तू खुदा को,दिल से,
तो अब अज़ानो में,उसे आवाज़,लगाता क्या है?
यूँ तो भेजा था,तुझे उसने, बना के तो इंसान,
पर नाम-ए-दीन पर तू,खुद को,बनाता क्या है?
एक जावेदा सी ज़िन्दगी बक्शी है तुझको उसने,
तू इश्क छोड़,नफरत के, कांटे उगाता क्या है?
सियासत से,सरेआम क़त्ल कर,इंसानियत का,
लाशों ढेर पर, बैठ,अब ये अश्क बहाता क्या है?
धीरे धीरे तू भी इस शहर सा बन र हा है 'अक्स',
दिल तेरा क्या कहता है और तू सुनाता क्या है?
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