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सोमवार, 1 जून 2015

लघु कथा 8: रास्ते के भगवान -अतुल सती 'अक्स'


"अरे चलो न जल्दी यहाँ क्यों रुक गए? पहले ही बड़ी देर हो रही है और तुम हो की जगह जगह रुक रहे हो।"
संध्या आज बड़ी ही जल्दी में थी,आज शिवरात्रि जो थी। वो हर सोमवार को व्रत रखती थी और शिव को बहुत मानती थी।

" अरे ये भी तो मंदिर है ये बेर और दूध यहीं शिवलिंग पर चढ़ा देते हैं। फल,पैसा जो भी दान करना है वो इन बाबा को दे देंगे।" मैंने अपनी कार सड़क के किनारे बने एक छोटे से मंदिर के पास रोक दी थी।

वो मंदिर सड़क पर एक छोटा सा मंदिर था जिसकी देखरेख एक वयोवृद्ध बाबा करते थे।वो किसी से कोई बात नहीं करते थे बस चुपचाप मंदिर में ही रहते थे। लोग उन्हें पागल बाबा कहते थे।

" अरे दान करने को ये ही पागल बाबा ही मिले क्या तुम्हे? और ये..... ये भी कोई मंदिर है भला? रास्ते के भगवान ही मिले थे तुम्हे?" बड़े ही गुस्से में संध्या ने कहा।
"हम मल्लिकार्जुन जा रहे हैं..... क्या तुम्हे इतना भी ध्यान नहीं? १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक है वो, मैं तो वहीँ दान पुण्य करुँगी और वहीँ दूध चढ़ाऊँगी अपने भोले बाबा को। मैं रास्ते के भगवान पर दूध नहीं चढ़ाऊँगी। अब चलो भी।"

संध्या की जिद के आगे मेरी एक न चली और हम मल्लिकार्जुन में ही पूजा अर्चना कर के घर लौटने लगे। रास्ते में संध्या अपनी सहेलिओं को बड़े ही नाज़ से बता रही थी कि वो आज मल्लिकार्जुन को दूध चढ़ा कर आयी है। उसकी तपस्या सफल हुई। और ठीक उसी वक़्त हमारी कार उसी 'रास्ते के भगवान' के मंदिर के पास से गुजर रही थी और मैं सोच रहा था "शायद भगवान भी बड़े घरों में रह कर बड़ा हो जाता है। रस्ते में बने छोटे मंदिर का भगवान छोटा ही है।
हम इंसानों ने भगवान को भी इंसान ही बना कर रख दिया है।"
               

-अतुल सती 'अक्स'

                       
                               

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