रोज ही,
जरूरतों के हाथों,
बेआबरू होती है,
इसकदर,
के दम तोड़ देती हैं,
तमन्नायें,
भटक भटक कर,
दर-ब-दर।
जरूरतों के हाथों,
बेआबरू होती है,
इसकदर,
के दम तोड़ देती हैं,
तमन्नायें,
भटक भटक कर,
दर-ब-दर।
किश्तों के लिए जीता हूँ,
या किश्तों में जीता हूँ?
थक गया,
सोच सोच कर।
बस चार दीवारों,
और एक छत की खातिर,
खुद को दाँव लगा,
बनाना है घर।
या किश्तों में जीता हूँ?
थक गया,
सोच सोच कर।
बस चार दीवारों,
और एक छत की खातिर,
खुद को दाँव लगा,
बनाना है घर।
जरूरतों के बाज़ारों में,
खड़े हैं लुटेरे,
लूटने को,बेसबर।
बड़ी ही डरी डरी,
सहमी सहमी सी आती है,
तनख्वाह मेरी, मेरे घर।
- अतुल सती 'अक्स'
खड़े हैं लुटेरे,
लूटने को,बेसबर।
बड़ी ही डरी डरी,
सहमी सहमी सी आती है,
तनख्वाह मेरी, मेरे घर।
- अतुल सती 'अक्स'
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