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शुक्रवार, 13 मई 2016

अंतिम प्रेम पत्र - अक्स



कभी कभी नितांत अकेले में,
कुछ बीती यादों के अँधेरे में,
जब तुमको खोजा  करता हूँ,
जल जल कर मैं,तेरी यादों में,    
खुद को उजला उजला करता हूँ,
तो तब,
तुम दिखती हो मुझे,
मेरी नायिका,
ठीक वैसी ही,
जैसी तुम हो मेरे मन में,
जैसे तुम तब थी,
जब आखिरी बार मिले थे,
हम उपवन में,   
वो ही,   
चंचल मन,
सुकोमल तन,
उभरे कसे उभार,
चमकते नयन,
और तपता यौवन!!!
फिर आता है एक प्रश्न,
क्या अब भी तुम वैसी ही होगी?
दशकों बाद आज भी क्या,
तुम संग होगा वो चंचल यौवन?
या,
या फिर जैसे ढलता है सूरज,
और होती है कुछ काम अगन,
वैसा ही क्या आज प्रिये !!!    
ढल गया होगा तेरा तन?
पके बालों से कुछ पकी पकी सी,
बच्चों के चिल्ल पों से,
कुछ थकी थकी सी,
घर गृहस्थी में उलझा जीवन,
ढला ढला सा होगा हर ढाल,
सूखे कमल से होंगे नयन,
न उभरा कोई उभार,
इसी पर तो नाज़ था तुमको,
प्रिय था बस तन और धन,
और इसी के लिए,
छोड़ दिया,
तोड़ दिया,
प्रेम भरा मेरा कोमल मन।              
तुमको भी तो तन्हाई मिलती होगी,
कभी तो यादों से भरी नदी,
भूले भटके ही सही,
कहीं मिलती होगी?
कभी तो भीगती होगी उस नदी में तुम भी,
कभी तो खुद से कुछ कहती होगी?
तुम भी तो कुछ कहना चाहती होगी?
जो समझा मैं नासमझ बन कर,
कुछ मुझको तो समझाना चाहती होगी?
किस तरह तन्हा रह कर,
मेरे बिन पर सबके संग,
काटा है तुमने जीवन,
वो सारे खट्टे मीठे पलों की कहानी,
तुम भी तो सुनाना चाहती होगी। 
यूँ तो मैं भी अब थक चुका हूँ,
सब रिश्ते नाते निभाते निभाते,
अपने बुढ़ापे से पक चुका हूँ।
माफ़ किया मैंने अब तुमको,
अब तुमसे माफ़ी चाहता हूँ,   
बहुत कुछ है मन के भीतर,
तुमसे कहना चाहता हूँ। 
तुम्हारी बातों को फिर से सुनकर,
अपना खालीपन भरना चाहता हूँ। 
इस धीमी धीमी गुजरती ज़िन्दगी में,  
आज भी मैं, 
कभी कभी नितांत अकेले में,
कुछ बीती यादों के अँधेरे में,
जब तुमको खोजा  करता हूँ,
जल जल कर मैं,तेरी यादों में,
खुद को उजला उजला करता हूँ। 
            - अतुल सती 'अक्स'

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