मैं और मेरा जीवन किस तरह इस जनानी प्रधान दुनिया में गुजरता है ये बस मैं ही जानता हूँ।
मेट्रो में, ऑफिस में, बाजार में यहाँ तक कि मंदिर तक में, मैं जब भी जाता हूँ तो मेरे पेट के उभार को घूरती निगाहों के बीच खुद को समेटने का प्रयास करता हुआ बहुत ही असहाय महसूस करता हूँ।
जब मेरी टीशर्ट से मेरी बनियान थोड़ा सा भी बाहर झांकती है तो मेरे आसपास की लड़कियों की दरिंदगी उनकी आँखों से टपकने लगती है। अपनी टीशर्ट को सँभालने में तो कभी शर्ट के बटन को बंद करने में ही मेरी रूह कांप जाती है पर मैं अपने हाथों को नहीं कांपने देता। अपने कंधे और छाती को मैं बड़ी ही निडरता से ढक लेता हूँ।
कभी कुछ गिर जाए उसे उठाने के लिए झुकूँ, या कभी जब मैं अपने मित्र के साथ उसके पीछे बैठकर बाइक पर सैर करूँ और अगर मेरी टीशर्ट थोड़ा उठ जाए तो मुझे पता है तुम लड़कियों की नज़र कहाँ अटक जाती है। बताओ तुम, मैं, मेरी बैक क्लीवेज को कैसे छुपाऊं? एक सेकंड के लिए भी तो तुम लड़कियां मुझसे और मुझ जैसे तामाम मर्दों के जिस्म से अपनी गिद्ध जैसी नज़रें नहीं हटाती हो। मुझसे छोटी या बड़ी या हमउम्र हो बस तुम घूरती ही जाती हो।
किस तरह और कहाँ कहाँ मैं खुद को बचाऊँ? इसीलिए शायद मुझे ही बुरका पहनना होगा, शायद इसीलिए ही तुम जनानिओं ने हम मर्दों के लिए बुरक़ा बनाया होगा, क्योंकि तुम लड़कियों की नज़रें तो हम मर्दों के जिस्म को नोचेंगी ही नोचेंगी। हम मर्दों का जिस्म तुम्हारी आँखों के लिए ही तो होता है। है न?
- अतुल सती अक्स
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