अभी तक इस ब्लॉग को देखने वालों की संख्या: इनमे से एक आप हैं। धन्यवाद आपका।

यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 31 जुलाई 2016

खैर


मैं चाहता हूँ, 
रहना पहाड़ों में,
जीना पहाड़ों में,
मरना पहाड़ों में,
पर कल तन्ख्वाह मिलेगी तो,
किराया भरूँगा, किश्त भरूँगा,
बेटे की फीस भरूँगा,
पहाड़ से दूर रह कर,
ख्वाहिशों को मार कर,
जरूरतों को जिन्दा रखूँगा,

खैर,             
क्या मैं चाहता हूँ? 
क्या करता हूँ मैं?
ये मुझको भी पता है,
ये तुमको भी पता है। 

मैं रहता था,
मस्त अपनी दुनिया में,
गंगा का छाला और
ह्युन्चलों के बीच में ,  
पर कल फँसा रहा जाम में,
तो गौर से देखा गाज़ीपुर का पहाड़,
मरी हुई यमुना, गंदे नालों की गाड़,
ये ही सब, अब हिस्सा हैं मेरे,
घर -ऑफिस की दौड़ में फँसा हूँ,
साँसे चल तो रही हैं, शायद जिन्दा हूँ,       

खैर,             
कहाँ होना था मुझे?
कहाँ होता हूँ मैं?
ये मुझको भी पता है,
ये तुमको भी पता है। 

मैं जाना चाहता हूँ, 
बूढ़े माँ बाप के पास मीलों दूर, 
अकेले हैं, घर बुलाते हैं, 
मैंने कहा कि छुट्टी नहीं है,  
कल मेरा वीजा इंटरव्यू है,
खुद के लिए या कंपनी के लिए,
डॉलर कमाना है मुझे,  
यहाँ और वहाँ में फंसा हूँ मैं,  
दरम्यां ख्वाहिशों और जरूरतों के,    
बड़ा ही बुरा फंसा हूँ मैं,
          
खैर,   
कहाँ होना चाहिये मुझे?
कहाँ होऊँगा मैं ?
ये मुझको भी पता है,
ये तुमको भी पता है। 


मंगलवार, 26 जुलाई 2016

मैं-मेरा बचपन- मेरा आज - मेरा कल

मैं और मेरे गाँव का लाटा चाँद 
------------------------------------------- 
मेरी ज़िन्दगी के बचपन का हर दिन,
आसमान का एक तारा लगता है,
उस ज़माने में फ्लैट नहीं थे, सोसाइटी नहीं थी,
बस कुछ घर थे, कुछ मोहल्ले थे, और थे कुछ मैदान। 
मैदानों से खेलकर जब बचपन घर आता,
तो अपना खुद का एक नन्हा सा मैदान पाता। 
उस ज़माने में हर घर में आँगन थे,
उन्ही में बचपन खेलता था,
उसी आँगन में कुछ ख्वाब बनते थे बिगड़ते थे। 
वहीँ कुछ छोटे छोटे गड्ढे कंचों के लिए थे,
गोया चाँद की जमीन अपने आँगन में उतार दी हो। 
उस वक़्त घरों पर जो छत हुआ करती थी,
उसकी अक्सर बाउंड्री नहीं होती थी,
जैसे कोई आज़ादी दे रखी हो छत को, 
जैसे कोई बंधन ही न हो जीवन में,
वहीँ उसी छत पर कुछ तारे बिखरे हुए रहते थे,
किस्से-कहानियों के हिस्से बिखरे रहते थे,
मैं अक्सर अपने भाइयों से साथ उस आसमान को बाँट दिया करता था,
और चाँद को एक बूढ़ी दादी के सूत कातने को छोड़ दिया करता था।


जब कभी हम रूड़की से अपने गाँव झालीमठ जाते थे,
तो वो चाँद भी मेरे गाँव पहुँच जाता था,
और वहां वो और बड़ा, और साफ़ हो जाता था। 
तारे भी जैसे बड़े ही खुश होते थे,
कुछ ज्यादा ही आसमान में चमकते थे, 
जैसे मेरी घर की छत से उड़ कर आसमान में बिखर गए हों। 
वहां गाँव में मेरी नन्ही चचेरी बहनें भी आती थीं,
शायद इसीलिए तारे कुछ ज्यादा हो जाते थे, क्योंकि अब हिस्से भी ज्यादा होते थे। 
हम भाई बहन खेलते,पंदेरे से पानी लाते, छोटे से छोटे बर्तन से, बड़े से बड़े बर्तन तक। 
पर मैं बंठा नहीं उठा पाता था, बंठा उठाने को अभी थोड़ा छोटा था न। 
लेकिन इतना बड़ा तो था कि चाचा,दादा और पापा संग गदेरे जा सकूँ,
हाथों से ही मछली पकड़ सकूँ, 

दोस्तों संग भैंसे नहला सकूँ। 
गाय चराते चराते, कालिंका धार गया था एक बार जब, 
करौंदे और तिम्ले के पत्तों का पान बना कर खाया था तब,
वो लाल काले बीज होते थे न कुछ तो, बड़े सुंदर से, 
उन्हें आँखों में डाल कर आँखों को रिन्गाना,
साली में जाकर अपनी गौड़ी से मिलकर आना,
दादी का मार्खा गौड़ी को पिजाना, 
कोदे की रोटी और पिसयुं लोण के संग,
ताज़ा घी वाला खाना खाना। 
और फिर शाम को आसमान के तारों के हिस्से करना, 
और, 
और उस बड़े से खुश मिज़ाज़ चाँद को,
बूढ़ी दादी के सूत काटने को फिर से छोड़ दिया करना।


पर उस चाँद पर रहने वाली वो बूढ़ी दादी, 
मेरी दादी की भी बूढ़ी दादी थी,
हाँ !!! मैंने पूछा था एक बार,

वो भी मेरी ही तरह उनसे नहीं मिली थी। 
बड़ा ही भारी समय होता था, 
जब हम वापस अपने घर रुड़की को आने लगते थे,
दादा दादी, चाचा चाची और भुल्लिओं के विछोह से,
पर अगली बार जल्दी मिलने के वादे पर,
चाचा चाची से मिले पैसों पर,
और पुल छोड़ने तक दादा दादी की भुक्कीयों से,
मन बहलाते जाते थे। 
पुल पार करके, जितनी भी बार,वापस मुड़ कर देखो, 
दादा दादी वहीँ नज़र आते थे।

वो वहां तब तक होते थे जब तक हम ओझल न हो जाएं।  


मैंने अपने गाँव के दोस्तों को बताया था कि हम जा रहे हैं, 
सबको बताया था पर चाँद को बताना भूल गया, 
ऋषिकेश पहुँचने से पहले ही रात हो जाती थी, 
और वो चाँद, वो लाटा, वो बोल्या चाँद,
हमारी गाड़ी के पीछे पीछे, 
हर बार रोता बिलखता, मेरे गाँव, मेरे दादा दादी,
और अपनी दोस्ती की दुहाई देता,
वापस लौट आने की जिद्द करता,
कभी किसी पहाड़ी से ठोकर खाता, 
कभी किसी बिल्डिंग से टकराता, चोट खाता,
हमारे पीछे पीछे रुड़की पहुँच जाता। 


गर्मी की छुट्टियों की दोस्ती हर बार बरसात में टूट जाती थी। 
मैं अक्सर बारिश को, चाँद, गाँव और दादा दादी के आँसू समझता था,
तब रातों को चाँद नाराज़ हो कर बादलों के पीछे छुप जाता था। 
वो मुझसे बात ही नहीं करता था,

बस रोता जाता था। 
  
अब आज अगर सालों साल में कभी, मैं गाँव जाता भी हूँ तो 
तो मुझे, वहां वो, गाँव, नज़र नहीं आता, 
रातों को, अब वो चाँद, नज़र नहीं आता, :(
अब मेरी छत पर बस टूटे हुए ख्वाब बिखरे रहते हैं,
वहां कोई कहानी नहीं होती,
वहां कोई तारा नज़र नहीं आता।    
दादा दादी को तो गुजरे हुए जमाना हो गया,
अब वो चाँद भी मेरे छत से गुजरता नज़र नहीं आता, 
वो मेरे साथ अब खेलता नहीं है,

अब वो मेरे पीछे दौड़ता नज़र नहीं आता।  
वो अब भी नाराज़ है मुझसे, मेरे गाँव की ही तरह,
शायद !!! मेरी ही तरह, अब वो भी, नाउम्मीद है,
अब वो भी मेरे वापस आने की राह देखता नज़र नहीं आता।

अब वो भी मेरे वापस आने की राह देखता नज़र नहीं आता।
                           - अतुल सती 'अक्स'                             
   







शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

हनुमान जी और उनके विवाह


आज हनुमान जी के विवाह बारे में एक चर्चा। 
(ये लेख केवल इस बारे में है कि हमारी संस्कृति की पुस्तकों में (ग्रंथों, वेदों, संहिताओं में, अन्य रामायणों में ) क्या लिखा है? और कोई एक पुस्तक जो ज्यादा प्रचलित हो जाती है उसी की हम मान्यताएं बन लेते हैं। ये सिर्फ तथ्य हैं, मान्यताएं हैं। )    
  
हम सब ये जानते हैं कि हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी हैं, लेकिन क्या आप ये जानते हैं कई रामायणों में  हनुमान जी विवाहित भी बताये गए हैं। 

जैन रामायण के अनुसार तो हनुमान जी के सैकड़ों विवाह थे जिनमे रावण, विभीषण और खरदूषण पुत्री भी हैं।    (विमलसूरि कृत "जैन रामायण")
इंडोनेशिया - मलय- थाई रामायणों में (खमेर - रामकेर और थाई रामकेंइन में) हनुमान जी एक मतस्य कन्या "सुअंनमच्चा" जो कि रावण पुत्री थी, से विवाह करते हैं।  
इन रामायणों के अनुसार हनुमान, खरदूषण(स्वर्णलता), रावण(सुअंनमच्चा) और विभीषण( बेंजकया - त्रिजटा ) के दामाद भी थे। उन्होंने इन तीनों की पुत्रियों से विवाह भी किया था। 
त्रिजटा और हनुमान जी से एक असुर पुत्र उत्त्पन्न हुआ जिसका सर वानर का और पूँछ थी। 
उसका नाम "हनुमान टेगंग्गा या असुरपद) था।    

लेकिन जो आश्चर्य है वो ये है कि स्वयं भारत में ही उन्हें एक जगह सपत्नीक पूजा जाता है।  तेलंगाना राज्य में  एक स्थान है - खम्मम - जहाँ हनुमान जी अपनी पत्नी समेत पूजे जाते हैं। 
यहाँ हनुमान जी अपने ब्रम्हचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।
और बाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में हनुमान जी के इसी रूप का वर्णन मिलता है, लेकिन "पराशर संहिता" में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है।
पराशर ऋषि, ब्रह्मा के प्रपोत्र ,"गुरु वशिष्ठ" के पौत्र, शक्ति मुनि के पुत्र  और "महाभारत, उपनिषदों " के रचयिता "कृष्णद्वेपायन वेद व्यास" के पिता थे। 


पराशर ऋषि कृत पराशर संहिता अनुसार:      
पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे, कुछ विशेष परिस्थियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन मे बंधना पड़ा। हनुमान जी के गुरु भगवान सूर्य थे। हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह- तरह की विद्याओं का ज्ञान देते।
लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया, कुल 9 तरह की विद्याओं में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।
हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे।इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वो धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए।
लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहा से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे, ऐसे में सूर्यदेव ने अपने शिष्य हनुमान जी को राह दिखलाई। सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया।
देवी सुवर्चला बहुत ही तेजपूर्ण थी अपने पिता की ही भांति। सुवर्चला सदा ही तप रत रहती थीं और आगे भी अपना समस्त जीवन तप में ही व्यतीत करना चाहती थीं।   
इस विवाह के बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।
इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बांध गए हो लेकिन शाररिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।
सूर्यदेव ने इस विवाह पर यह कहा की – यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य प्रभावित नहीं होगा।


गुरुवार, 21 जुलाई 2016

अजर अमरता: जो मैंने जाना जो मैंने माना


आज एक छोटी सी चर्चा सनातन काल गणना पर:  
अजर अमरता: जो मैंने जाना जो मैंने माना 
---------------------------------------------------------------------------------------------- 

ब्रह्मा जी के एक दिन अर्थात १ कल्प में, १४ इन्द्र, १४ मनु मृत्यु को प्राप्त होते हैं और इनकी जगह नए देवता इन्द्र का और मनु का स्थान लेते हैं।  इतनी बड़ी ही ब्रह्मा की रात्रि होती है। दिन की इस गणना के आधार पर ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष होती है और फिर ब्रह्मा भी मृत हो जाते हैं,और तब कोई दूसरे देवता ब्रह्मा का स्थान ग्रहण करते हैं। ब्रह्म तत्व ग्रहण करता है।  
ब्रह्मा की आयु के बराबर विष्णु का एक दिन होता है। इस आधार पर विष्णु की आयु १०० वर्ष है।
फिर विष्णु भी मृत हो जाते हैं और एक नयी शक्ति उनका स्थान लेती है, विष्णु तत्व को ग्रहण कर।   
विष्णु की आयु के बराबर शिव का एक दिन होता है। इस दिन और रात के अनुसार शंकर जी की आयु १०० वर्ष होती है। फिर शिव मृत्यु को प्राप्त होते हैं और फिर एक नयी शक्ति शिव बनती है, शिव तत्व को ग्रहण कर। 
जिस एक चतुर्युग (सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग,और कलियुग) का ज्ञान हम रखते हैं, मनुष्य जाती रखती है वैसे ७१ चतुर्युगों के बराबर एक मन्वन्तर होता है, एक मनु का, एक इंद्र का जीवन होता है। और अभी तो सप्तम (7वाँ) मन्वन्तर चल रहा है। अर्थात अभी तक ६ मनु और ६ इंद्र मृत हो चुके हैं। और 7वें  मनु तथा 7वें इंद्र का काल चल रहा है।                               
सब कुछ नष्ट होता है किन्तु जो कभी नष्ट नहीं होता उसे प्रकृति कहते हैं। प्रकृति को छोड़कर सबकुछ नश्वर है, मृत्यु को प्राप्त होता है, फिर से जन्म लेता है। हर काल में हर पल बस ये ही चलता है "जीवन और मृत्यु" । ये ही अनन्त अनाद चक्र है, ये ही सनातन है। स्वर्ग और नर्क भी अस्थायी है।  अगर आप समझते हैं की आप सदा ही स्वर्ग में रहेंगे या नर्क में ऐसा नहीं है।  सनातन पद्धत्ति में ये अनन्त काल तक चलने वाला चक्र है और इस चक्र से मुक्ति संभव नहीं है। आपका एक निश्चित स्थान, निश्चित पद, निश्चित आयु, निश्चित कार्य, निश्चित भूमिका निर्धारित है, फिर ये आपका विवेक है कि आप उसका निर्वहन करते हैं या नहीं और अगर निर्वहन करते हैं तो किस प्रकार करते हैं। 
                    - अतुल सती 'अक्स'

बुधवार, 20 जुलाई 2016

यक्ष् प्रश्न

जब चीर   हरण, सरे आम हुआ, तब पौरुष क्यूँ, किंकर्तव्य विमूढ़ हुआ?
जब भीख समझ,मुझे बाँट दिया,तब पौरुष क्यूँ, किंकर्तव्य विमूढ़ हुआ?
जब आग,तन झुलसा न सकी, पर, मन भीतर भीतर तब  झुलस गया। 
जब त्याग कर वन में छोड़ दिया,तब पौरुष क्यूँ, किंकर्तव्य विमूढ़ हुआ?    
                                                               -अतुल सती 'अक्स' 

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

पलायन

उत्तराखंड बना था कभी कारण था पलायन,
और आज खत्म हो रहा कारण है पलायन, 
कभी पश्चिम-दक्षिण दिशा से किया पलायन,
अब वापस उसी दिशा को हो रहा पलायन,  
कभी जीवन को बचाने को हुआ पलायन,
कभी जीवन को सजाने को होता पलायन,
धार से सैण में, सैण से पलैन में,  
सरोलो से गंगाड़ी में,
सैरा पुंगड़ो से, बस्ती में,
बस्ती से बाजार में,
बाहर वालों का पहाड़ों में,
पहाड़ी का बाहर देश में,
देश वालों का विदेश में,
सदा से होता ही रहा है,
किसके रोकने से रुका है कभी,
कहते हैं जिसे हम पलायन !!!         
                        
                      - अक्स 

सोमवार, 11 जुलाई 2016

गफलत



हमने उम्र सारी गुजार दी उन्हें भुलाने में,
वो अब भी लगे हैं सब्र मेरा आजमाने में।  

कब्र पर मेरी, मेरे रक़ीब संग आये हैं  वो,  
वो अब भी बाज नहीं आये,हमें जलाने में। 

माँ बाप घर से बेघर कर, पालें हैं जानवर,
कोई कसर न छोड़ी खुदको हैवान बनाने में। 

मज़हब वो,जो मजबूर न करे, मज़लूम न करे,
कभी तो कुछ करें,मज़हब को मज़हब बनाने में।      

एक मुद्दत लगी तो बना था आशियाँ कोई,
पल भर भी तो न लगा,उन्हें इसे जलाने में। 

खुद ही अब क़त्ल का सामान बांटता है यहाँ,
कुछ तो गफलत हुई होगी,उसे खुदा बनाने में।  

नामे-दीन पर हर कोई बना है ख़ुदा यहाँ  'अक्स',
सुना था,कई बरस लगे थे,उसे इंसान बनाने में।   
                                       -अतुल सती 'अक्स' 

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

भारत: एक पहचान खोता राष्ट्र - अक्स

भारत: एक पहचान खोता राष्ट्र
 आज में इस लेख के माध्यम से भारत वर्ष की उत्पत्ति और भारत नाम के उदय के बारे में कुछ प्रकाश डालना चाहूँगा. मेरे कई मित्र मेरे इस भावना से अवगत हैं की हमारे देश की और हम देश वासियों की ये बड़ी ही अजीब विडम्बना है की हम खुद को भारत वासी से ज्यादा इंडियन कहलाना पसंद करते हैं. हमारा देश की गुलाम मानसिकता देखिये  की अंग्रेजों की सहूलियत के लिए हमने अपने देश का नम ही बदल दिया. "भारत" हिंदी में और "इंडिया" अंग्रेजी में. हम दुनिया के एकलौते देश हैं जहाँ उसकी खुद की मात्रभाष सबसे कम बोली जाती है... इंग्लिश बहुत ही तेजी के साथ फ़ैल रही है और बहुत उम्मीद है की जल्द ही सिर्फ आंग्ल भाषा ही इस देश में बचेगी.. जैसे संस्कृत ख़तम हो रही अहि ऐसी ही हिंदी का हश्र होगा. इसीलिए जरूरी है की सर्वप्रथम हम अपने देश का नाम जाने. हमारे देश का नम भारत क्यूँ है? कब से है? भारत क्या है? ये कोई काल्पनिक नाम नहीं है. ये पौराणिक नाम है जो कई सदियों से चलता आ रहा है.


आखिर ये भारत नाम आया कहाँ से?
भारत नाम की उत्पति का सम्बंध प्राचीन भारत के चक्रवर्ती सम्राट, मनु के वंशज भगवान ऋषभदेव के पु्त्र भरत से है। भरत एक प्रतापी राजा एवं महान भक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध एवं जैन ग्रन्थों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वायंभुव मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थलेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। विष्णु पुराण में उल्लेख आता है "ततश्च भारतवर्ष तल्लो केषु गीयते"अर्थात् "तभी से इस देश को भारत वर्ष कहा जाने लगा"। वायु पुराण भी कहता है कि इससे पहले भारतवर्ष का नाम हिमवर्ष था।
श्रीमद्भागवत के अनुसार:
येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति॥९॥
अर्थात्
उनमें (सौ पुत्रों में) महायोगी भरतजी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे। उन्हीं के नाम से लोग इस अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे॥९॥
दो अध्याय बाद इसी बात को फिर से दोहराया गया है। एक अन्य स्थान पर भागवत में लिखा है "अजनाभ नामैतद्वर्ष भारत मिति यत् आरंभ्य व्यपदिशन्ति" अर्थात् "इस वर्ष को जिसका नाम अजनाभ वर्ष था तबसे (ऋषभ पुत्र भरत के समय से) भारत वर्ष कहते हैं"
एक अन्य मत जो कि आमतौर पर पाठ्य पुस्तकों में प्रचलित है, के अनुसार दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारत नाम पड़ा। परन्तु विभिन्न स्रोतों में वर्णित तथ्यों के आधार पर यह मान्यता गलत साबित होती है। पूरी वैष्णव परम्परा और जैन परम्परा में बार-बार दर्ज है कि समुद्र से लेकर हिमालय तक फैले इस देश का नाम प्रथम तीर्थंकर दार्शनिक राजा भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। इसके अतिरिक्त जिस भी पुराण में भारतवर्ष का विवरण है वहां इसे ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर ही पड़ा बताया गया है।
विष्णु पुराण (अंश-२, अध्याय-१) कहता है कि जब ऋषभदेव ने नग्न होकर गले में बाट बांधकर वन प्रस्थान किया तो अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को उत्तराधिकार दिया जिससे इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः (श्लोक २८) अभिषिच्य सुतं वीरं भरतं पृथिवीपतिः (२९) नग्नो वीटां मुखे कृत्वा वीराधवानं ततो गतः (३१) ततश्च भारतं वर्षम् एतद् लोकेषु गीयते (३२)
लिंग पुराण में ठीक इसी बात को ४७-२१-२४ में दूसरे शब्दों में दोहराया गया है।
सोभिचिन्तयाथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सलः। ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रिय महोरगान्। हिमाद्रेर्दक्षिण वर्षं भरतस्य न्यवेदयत्। तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।
अर्थात (संक्षेप में) इन्द्रिय रूपी साँपों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य भरत को दिया तो इस देश का नाम तब से भारतवर्ष पड़ गया। इसी बात को प्रकारान्तर से वायु और ब्रह्माण्ड पुराण में भी कहा गया है।
विष्णु पुराण कहता है कि उसी देश का नाम भारतवर्ष है जो समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है।
उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संतति:’ (२,३,१)।
इसमें खास बात यह है कि इसमें जहां भारत राष्ट्र का वर्णन है वहाँ भारतीयों को भारती कहकर पुकारा गया है।
महाभारत के भीष्म पर्व के नौवें अध्याय में धृतराष्ट्र से संवाद करते हुए, उनके मन्त्री संजय कहते हैं-
अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षम् भारत भारतम्। प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनो: वैवस्वतस्य च। पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाको: महात्मन:। ययाते: अम्बरीषस्य मान्धातु: नहुषस्य च। तथैव मुचुकुन्दस्य शिबे: औशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा। अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥
अर्थात् हे महाराज धृतराष्ट्र, अब मैं आपको बताऊँगा कि यह भारत देश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र इस देश के दीवाने थे तो विवस्वान् के पुत्र मनु इस देश से बहुत प्यार करते थे। ययाति हों या अम्बरीष, मान्धाता रहे हो या नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ या महाराज नृग रहे हों, इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान और बलवान राजा इस देश में हुए, उन सबको भारत देश बहुत प्रिय रहा है।
इससे पता चलता है कि महाभारत काल से पहले से ही भारत नाम प्रचलित था।
इन तथ्यों के देखकर प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह धारणा कहाँ से आई कि दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत हुआ? इस सम्बंध में ध्यान देना होगा कि सातवें मनु के आगे दो वंश हो गए थे पहला इक्ष्वाकु या सूर्यवंश और दूसरा चन्द्रवंश। इसी चन्द्रवंश में दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र भरत का जन्म हुआ। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है- "चक्रवर्ती सुतो जज्ञे दुष्यन्तस्य महात्मनः शकुन्तलायाँ भरतो यस्य नाम्तु भारताः" अर्थात्- "महात्मा दुष्यन्त का शकुन्तला से चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ जिसकी उपाधि भारत हुई"। इस भरत वंश के लोग भारत कहलाए। यहाँ भारताः से इस भारत की धारणा की गई। जबकि यह भरत के वंशजों से जुड़ी उपाधि है। इस सन्दर्भ में गीता के विभिन्न श्लोक देखे जा सकते हैं जिनमें भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को भारतकह कर सम्बोधित करते हैं जैसे- "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत"
इसके अतिरिक्त ऋषभ पुत्र भरत तथा दुष्यन्त पुत्र भरत में छः मन्वन्तर का अन्तराल है। अतः यह देश अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत है।



भारत एक राष्ट्र कैसे हुआ??
भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव-सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभू मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़ कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे।


तो ये एक संक्षिप्त परिचय था भारत देश का. जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था. जो आर्याव्रत था... जम्बू दीप था. विश्व गुरु था. ज्ञान गुरु था. हमें इसकी गरिमा की रक्षा करनी ही चहिये. प्रगति पथ पर खुद के साथ साथ देश को भी आगे ले जायें.
जय हिंद !!!!! जय भारत !!!!!! 

                 - अक्स 

सोमवार, 4 जुलाई 2016

मैंने सुना कि पहाड़ मर रहा है- अक्स

मैंने सुना कि पहाड़ मर रहा है, आपने भी सुना बल?
क्या बथ हुई होली बल?
किसी ने कोई देबता ढुकाया है पक्का,
उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की लड़ाई हुई छे बल परसों,
जरूर उत्तरप्रदेश ने गाल घात डाली होगी।
लेकिन एक पुछेर ने बताया बल नयु नयु देबता है,
और किसी अपने ने ही ढुकाया है बल,  
आजकल बल NRU(प्रवासी) और पहाड़ी (वासी) की भी लड़ाई चल रही है,
तो कखि......
किले कि पिछला कुछ सालों बटिन उत्तराखंडी बस रोणा ही छन,
परारदां भी बल बादल फटे और इबारदां भी। 
किले कि गलती तो बल देबता ही करते हैं,
हम तो नर हैं, हम थोड़े न कोई गलती करते हैं, अबोध हैं। 
डैम देबताओं ने बनवाया,
आग भी लगवाई जंगलों में,
पलायन भी उन्होंने ही किया।
सड़कों के नाम पर बम देबताओं ने फोड़े,
जंगल काट कर रिसोर्ट्स देबताओं ने बनवाए,
पारम्परिक तरीकों से घर बनाने की विधा को देबताओं ने त्यागा,
सीमेंट, सरिया, बालू, ईंट सब बाहर से ला ला कर,
पहाड़ों पर बोझ बढ़वाया देबताओं ने,
हमने थोड़े न कुछ किया। 
वैसे एक पुछेर ने ये भी बोला बल कि,
देबता अपने आप की लग गए उत्तराखंड पर,
किले कि कोई आता तो है नहीं घौर,
और जो घौर में रहते हैं वो तो खुद उंद जाने को मर रहे हैं,
तो देबताओं ने खुद ही हँकार लगवा दिया,
और, 
अब रखा क्या है कुमौं गढ़वाल में,
जो थे पहाड़ी वो प्लैन वाले हैं,
जो बचे हैं वो  जाने वाले हैं,  
तो अब आग, पानी, 
हाहाकार ही बचा बल अब पहाड़ में। 
वैसे ऐसा भी किसी देबता ने बोला है कि,
वो आग लगा कर, बादल फाड़ फाड़ कर,
पहाड़ को तोड़मोड़ कर एकदम प्लैन बन देंगे बल, जैसा दिल्ली, देहरादून, मुंबई है बल। 
क्या पता कोई वापस आजाये, 
या फिर कोई बच गया पहाड़ में तो वो प्लैन की ओर ना जाए।
क्यूंकि यहाँ भी प्लैन और वहां भी प्लैन, 
इस तरह से पहाड़ बचे न बचे पर पहाड़ी बच जाए।    
पहाड़ी तो पहाड़ी ही ठैरा बल,
तो क्या बोलते हो भेजी,
कुछ गलत बोला तो बथाओ मैते, क्या गलत बोला बल मैंने?     
       
                        - अक्स