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सोमवार, 29 अगस्त 2016

ज़िन्दगी और देहरादून


भागमभाग ही है अब बस ज़िन्दगी में,
कभी कोई तो सुकून वाली बात हो जाए।

कलमंठु का गोम्पा हो या शिव मंदिर की शांति,
सहस्त्र धारा हो या हो गुच्चू पानी की मस्ती,

                कुछ तो ज़िन्दगी में राहत की बात हो जाये।            
   चलो कुछ यूँ करें इस बार 'अक्स',

इस बारिश के बाद एक इवनिंग वॉक हो जाए,
थोड़ा सा थुक्पा, थोड़ा सा मोमोस का साथ हो जाये,

हाथो में हाथ लिए, यूँ ही टहलते हुए रात हो जाये,
ज़िन्दगी देहरादून,
और राजपुर रोड़ सी इसकी हर इक बात हो जाये।
                                         
                                     - अतुल सती 'अक्स'

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

कोई तो मजहब ऐसा हो


कोई तो मजहब ऐसा हो,
जिसे किसी से खतरा न हो,
जिसका परचम बुलंदी पर हो,
जो कभी आहत न हो,
जो आज खतरे में न हो।      
जो डराता न हो किसी को,
जो किसी से डरता न हो,
जो चिल्लाता न हो,
जो चीखता न हो। 

कोई तो मजहब दीन धरम होगा,
जो नफरत वाक़ई में न करता हो,
सच में कहीं कोई शाँति सुकून,
की बात करता हो,
उसके मानने वालों से,
वो मजहब ये मुहब्बत,
निभवाता भी हो। 
कहीं तो कोई बंदिश न हो,
जोर न हो, जबरदस्ती न हो,
जहाँ इंसान इंसान हो,
कोई भेड़ चाल की भेड़ न हो।     

कोई तो मजहब ऐसा हो,
जिसे किसी से खतरा न हो। 
               - अक्स 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

खामोश बवंडर

मत ढूँढा करो कुछ, मेरे लिखे में,
मेरी ही कहानिओं में मुझे मत तलाशो,
मत खोजा करो मेरी कविताओं में,
मेरे या मेरे किसी अपने के अक्स को,
गर खोजना ही है,
तो अपनी कहानी खोजो मेरी कहानी में,
अपने इश्क को खोजो मेरे इश्क में, मेरे अक्स में,
फिर देखो,
तुम भी समझ जाओगे,
इस खामोश बवंडर को,
जो चलता है कुछ मेरे भीतर, 
जो चलता है कुछ तेरे भीतर। 

सोमवार, 15 अगस्त 2016

पागल की बातें

मैं थक गया हूँ पता ये सॉफ्टवेर इंजीनियर का बोझ लिए हुए,ये कवि, ये फिलॉस्फर, ये इंसान, ये हिन्दू, ये भारतीय, ये पहचान लिए हुए,   एक पति, एक दोस्त , एक बाप, एक जँवाई, एक भांजा, भाई ,भतीजा, गुरु, चेला, एक बेटे का बोझ लिए,
बहुत ही ज्यादा घुटन होती है मुझे,
ये सब निभाते निभाते, एक्टिंग करते करते,  
बहुत ही ज्यादा थक गया हूँ मैं,
बहुत ज्यादा।
मैं सबके लिए अलग अलग हूँ ??? पर क्यों??? पता नहीं।
सब मुझे कहते हैं ऐसा करो, ऐसा नहीं, ये नहीं कह सकते, वो नहीं कर सकते, भावनाएं, संस्कृति, खानदान, रिश्तेदारी, उफ़ ये समाज????
क्या कल था, क्या कल होगा???? और क्या है आज?        
मैं कौन हूँ? क्या चाहता हूँ? क्या सोचता हूँ? क्यों सोचता हूँ? किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।  
पर क्यों फर्क नहीं पड़ता? बताओ ???
लेकिन वहीँ मेरे कुछ भी करने तो छोड़ो,  कहने भर  से सबको फर्क पड़ता है,
किसी की नाक काट जाती है, कोई शर्मसार हो जाता है,
किसी की भावनाएं आहत हो जाती हैं.,
प्रमोशन रुक जाता है,
पर क्यों???
जब होने न होने से, मेरी किसी भी मनोभाव से फर्क नहीं तो प्रकटीकरण से क्यों???
और इतने सारे किरदारों का बोझ मैं कब तक ढोता रहूँ???? बोलो ???       
कब तक ? ऐसा ही रहूँ??? कब तक?
कब तक अलग अलग किरदार निभाऊं?
कहीं कभी किसी दिन सब एक साथ मिल गए तो??? तब क्या रूप दिखाऊं?
बोलो कब तलक ये बोझ लिए घूमूँ ??? कौन जवाब देगा मुझे ???
अब आप बताओगे मुझे कि वो भी मैं ही हूँ जो जवाब देगा इसका?
अब अगर मेरी हर बात का जवाब मैं ही हूँ, जिम्मेदार भी मैं ही हूँ, तो आप क्यों हो?
  
मेरी ज़िन्दगी में ऐसा कुछ नहीं है जो मैंने खोजा हो,
मुझे सब कुछ मेरे बारे में,   
सच में, सब कुछ दूसरों ने बताया।
पैदा हुआ तो मेरा नाम बताया , जाति, पहचान बताई,
डिग्री मिली तो बताया कि अब तू इंजीनियर हो गया,
कविता लिखी तो बोले कवी हो गया,
कभी फिलॉस्फर तो कभी कुछ,
और फिर मैं पिस रहा हूँ इस चक्की में,
क्यों न पिसुं? क्योंकि सब पिसते  हैं? सब पीस रहे हैं, सब पिस रहे हैं ? तुम भी पिसो।
अब आप कहोगे की अगर इतनी दिक्कत है तो अपने मन की करो,
मन की कहो।   
लेकिन आप इस बात को पसंद तो करोगे लेकिन खुल के सपोर्ट नहीं करोगे,
क्योंकि,
फिर आपके अहं के चीथड़े उड़ जायेंगे पता।
मैं तो ...      
खैर रहने दो...
छोड़ो भी !!!
मैं तो पागल ही हूँ। :)
और आप ही ने बोला है कि,
पागल की बातें नहीं सुननी चाहिए। है न?
         - अक्स 
      

         

शनिवार, 13 अगस्त 2016

पेशवा बाजीराव - एक भूला बिसरा महा-नायक

- बाजीराव 6 फूट लम्बे थे, साथ ही उनके हाथ भी लम्बे थे. बलिष्ठ निरोग शरीर, तेजस्वी कांती, तांबई रंग की त्वचा, न्यायप्रिय. उन्हें सफ़ेद या हल्के रंग के वस्त्र पसंद थे. जहां तक हो सके स्वयं के काम स्वयं करते थे. उनके 4 घोड़े थे- निला, गंगा, सारंगा आणि अबलख. उनकी देखभाल स्वयं करते थे. घोड़े को तेज़ चलाते चने खाते वे सबसे तेज़ गति से यात्रा करते थे. झूठ बोलना, अन्याय, ऐशोआराम से उन्हें सख्त नफरत थी. पूरी सेना को वे सख्त अनुशासन में रखते थे.सेना को बहुत अच्छा प्रेरित और प्रोत्साहित करने वाला भाषण देते थे.
- अमेरिकी सेना में उनकी पालखेड की लड़ाई का एक मॉडल ही बना कर रखा है जिस पर सैनिकों को युद्ध तकनीक का प्रशिक्षण दिया जाता है.
- जब औरंगजेब के दरबार में अपमानित हुए वीर शिवाजी आगरा में उसकी कैद से बचकर भागे थे तो उन्होंने एक ही सपना देखा था, पूरे मुगल साम्राज्य को कदमों पर झुकाने का। अटक से कटक तक केसरिया लहराने का और हिंदू स्वराज लाने का। इस सपने को पूरा किया खासकर पेशवा बाजीराव प्रथम ने।
- उन्नीस-बीस साल के उस युवा ने तीन दिन तक दिल्ली को बंधक बनाकर रखा। मुगल बादशाह की लाल किले से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई। यहां तक कि 12वां मुगल बादशाह और औरंगजेब का नाती दिल्ली से बाहर भागने ही वाला था कि बाजीराव मुगलों को अपनी ताकत दिखाकर वापस लौट गया।
- वर्ल्ड वॉर सेकंड में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर रहे मशहूर सेनापति जनरल मांटगोमरी ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ वॉरफेयर’ में बाजीराव की बिजली की गति से तेज आक्रमण शैली की जमकर तारीफ की है और लिखा है कि बाजीराव कभी हारा नहीं। आज वो किताब ब्रिटेन में डिफेंस स्टडीज के कोर्स में पढ़ाई जाती है। बाद में यही आक्रमण शैली सेकंड वर्ल्ड वॉर में अपनाई गई, जिसे ‘ब्लिट्जक्रिग’ बोला गया।
- बाजीराव का वॉर रिकॉर्ड छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप से भी अच्छा था. उन्होंने 40 के ऊपर युद्ध लडे और एक में भी हारे नहीं.
- नर्मदा पार सेना ले जाने वाला और 400 वर्ष की यवनी सत्ता को दिल्ली में जा कर ललकारने वाला यह पहला मराठा था.
- बाजीराव ने अगर गुजरात, मालवा, बुंदेलखंड ना जीता होता और नर्मदा व विंध्य पर्वत के सभी मार्ग अपने कब्जे में ना लिए होते तो फिर एक बार अल्लाउद्दीन खिलजी, अकबर या औरंगजेब जैसा कोई शासक विशाल सेना ले आक्रमण करता.
- उसे टैलेंट की इस कदर पहचान थी कि उसके सिपहसालार बाद में मराठा इतिहास की बड़ी ताकत के तौर पर उभरे। होल्कर, सिंधिया, पवार, शिंदे, गायकवाड़ जैसी ताकतें जो बाद में अस्तित्व में आईं, वो सब पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट की देन थीं। ग्वालियर, इंदौर,धार, देवास , पूना और बड़ौदा जैसी ताकतवर रियासतें बाजीराव के चलते ही अस्तित्व में आईं।
- बाजीराव का अंतिम समय  मालवा में ही नर्मदा किनारे रावेरखेडी में लू लग कर विषम ज्वर आने से हुआ. ना की मस्तानी की याद में हुआ. उनके साथ उनके घोड़े और हाथी ने भी प्राण त्याग दिए. आज भी उनकी समाधि वहां है.
- बाजीराव पहला ऐसा योद्धा था, जिसके समय में 70 से 80 फीसदी भारत पर उसका सिक्का चलता था। वो अकेला ऐसा राजा था जिसने मुगल ताकत को दिल्ली और उसके आसपास तक समेट दिया था। पूना शहर को कस्बे से महानगर में तब्दील करने वाला बाजीराव बल्लाल भट्ट था, सतारा से लाकर कई अमीर परिवार वहां बसाए गए। - निजाम, बंगश से लेकर मुगलों और पुर्तगालियों तक को कई कई बार शिकस्त देने वाली अकेली ताकत थी बाजीराव की।
- शिवाजी के नाती शाहूजी महाराज को गद्दी पर बैठाकर बिना उसे चुनौती दिए, पूरे देश में उनकी ताकत का लोहा मनवाया था बाजीराव ने।
- पहली बार हिंदू पद पादशाही का सिद्धांत भी बाजीराव प्रथम ने दिया था। हर हिंदू राजा के लिए आधी रात मदद करने को तैयार था वो, पूरे देश का बादशाह एक हिंदू हो, उसके जीवन का लक्ष्य ये था, लेकिन जनता किसी भी धर्म को मानती हो उसके साथ वो न्याय करता था।
- उसकी अपनी फौज में कई अहम पदों पर मुस्लिम सिपहसालार थे, लेकिन वो युद्ध से पहले "हर हर महादेव" का नारा भी लगाना नहीं भूलता था।
- बुंदेलखंड की रियासत बाजीराव के दम पर जिंदा थी, छत्रसाल की मौत के बाद उसका तिहाई हिस्सा भी बाजीराव को मिला।
- कभी वाराणसी जाएंगे तो उसके नाम का एक घाट पाएंगे, जो खुद बाजीराव ने 1735 में बनवाया था, - दिल्ली के बिरला मंदिर में जाएंगे तो उसकी एक मूर्ति पाएंगे।
- कच्छ में जाएंगे तो उसका बनाया आइना महल पाएंगे, पूना में मस्तानी महल और शनिवार बाड़ा पाएंगे। अकबर की तरह उसको वक्त नहीं मिला, कम उम्र में चल बसा, नहीं तो भव्य इमारतें बनाने का उसको भी शौक था।
- दिल्ली पर आक्रमण उसका सबसे बड़ा साहसिक कदम था, वो अक्सर शिवाजी के नाती छत्रपति शाहु से कहता था कि मुगल साम्राज्य की जड़ों यानी दिल्ली पर आक्रमण किए बिना मराठों की ताकत को बुलंदी पर पहुंचाना मुमकिन नहीं, और दिल्ली को तो मैं कभी भी कदमों पर झुका दूंगा। छत्रपति शाहू सात साल की उम्र से 25 साल की उम्र तक मुगलों की कैद में रहे थे, वो मुगलों की ताकत को बखूबी जानते थे, लेकिन बाजीराव का जोश उस पर भारी पड़ जाता था।
- धीरे धीरे उसने महाराष्ट्र को ही नहीं पूरे पश्चिम भारत को मुगल आधिपत्य से मुक्त कर दिया।
- फिर उसने दक्कन का रुख किया, निजाम जो मुगल बादशाह से बगावत कर चुका था, एक बड़ी ताकत था। कम सेना होने के बावजूद बाजीराव ने उसे कई युद्धों में हराया और कई शर्तें थोपने के साथ उसे अपने प्रभाव में लिया।
- इधर उसने बुंदेलखंड में मुगल सिपाहसालार मोहम्मद बंगश को हराया।
- 1728 से 1735 के बीच पेशवा ने कई जंगें लड़ीं, पूरा मालवा और गुजरात उसके कब्जे में आ गया। बंगश, निजाम जैसे कई बड़े सिपहसालार पस्त हो चुके थे।
- इधर दिल्ली का दरबार ताकतवर सैयद बंधुओं को ठिकाने लगा चुका था, निजाम पहले ही विद्रोही हो चुका था।
- औरंगजेब के वंशज और 12 वें मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को रंगीला कहा जाता था, जो कवियों जैसी तबियत का था। जंग लड़ने की उसकी आदत में जंग लगा हुआ था। कई मुगल सिपाहसालार विद्रोह कर रहे थे।
- उसने बंगश को हटाकर जय सिंह को भेजा, जिसने बाजीराव से हारने के बाद उसको मालवा से चौथ वसूलने का अधिकार दिलवा दिया। - मुगल बादशाह ने बाजीराव को डिप्टी गर्वनर भी बनवा दिया। लेकिन बाजीराव का बचपन का सपना मुगल बादशाह को अपनी ताकत का परिचय करवाने का था, वो एक प्रांत का डिप्टी गर्वनर बनके या बंगश और निजाम जैसे सिपहासालारों को हराने से कैसे पूरा होता।
- उसने 12 नवंबर 1736 को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू किया। मुगल बादशाह ने आगरा के गर्वनर सादात खां को उससे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हार राव होल्कर और पिलाजी जाधव की सेना यमुना पार कर के दोआब में आ गई। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति बहुत दिलचस्प थी। इधर मल्हार राव होल्कर ने रणनीति पर अमल किया और मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने डींगें मारते हुआ अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद मथुरा की तरफ चला आया।
- बाजीराव ने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। उस वक्त देश में कोई भी ऐसी ताकत नहीं थी, जो सीधे दिल्ली पर आक्रमण करने का ख्वाब भी दिल में ला सके।
- सारी मुगल सेना आगरा मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया। दस दिन की दूरी बाजीराव ने केवल पांच सौ घोड़ों के साथ 48 घंटे में पूरी की, बिना रुके, बिना थके।
- देश के इतिहास में ये अब तक दो आक्रमण ही सबसे तेज माने गए हैं, एक अकबर का फतेहपुर से गुजरात के विद्रोह को दबाने के लिए नौ दिन के अंदर वापस गुजरात जाकर हमला करना और दूसरा बाजीराव का दिल्ली पर हमला।
- बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, केवल पांच सौ घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मौहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में आठ से दस हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। - बाजीराव के पांच सौ लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी। ये 28 मार्च 1737 का दिन था, मराठा ताकत के लिए सबसे बड़ा दिन। कितना आसान था बाजीराव के लिए, लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। लेकिन बाजीराव की जान तो पुणे में बसती थी, महाराष्ट्र में बसती थी।
- वो तीन दिन तक वहीं रुका, एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए। लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो तीन दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली को एक तरह से मराठों ने बंधक बना ली थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गया।
- बुरी तरह बेइज्जत हुआ मुगल बादशाह रंगीला ने निजाम से मदद मांगी, वो पुराना मुगल वफादार था, मुगल हुकूमत की इज्जत को बिखरते नहीं देख पाया। वो दक्कन से निकल पड़ा। इधर से बाजीराव और उधर से निजाम दोनों एमपी के सिरोंजी में मिले।
- कई बार बाजीराव से पिट चुके निजाम ने उसको केवल इतना बताया कि वो मुगल बादशाह से मिलने जा रहा है।
- निजाम दिल्ली आया, कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाया और बाजीराव को बेइज्जती करने का दंड देने का संकल्प लिया और कूच कर दिया।
- लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट से बड़ा कोई दूरदर्शी योद्धा उस काल खंड में पैदा नहीं हुआ था।बाजीराव खतरा भांप चुका था। अपने भाई चिमना जी अप्पा के साथ दस हजार सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर वो अस्सी हजार सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़ा। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था, ताकि फिर सिर ना उठा सकें।
- दिल्ली से निजाम के अगुआई में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की अगुआई में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं, 24 दिसंबर 1737 का दिन मराठा सेना ने मुगलों को जबरदस्त तरीके से हराया।
- निजाम अपनी जान बचाने के चक्कर में जल्द संधि करने के लिए तैयार हो जाता था। इस बार 7 जनवरी 1738 को ये संधि दोराहा में हुई।
- मालवा मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने पचास लाख रुपये बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे। - चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था, सो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए।
- अगला अभियान उसका पुर्तगालियों के खिलाफ था। कई युद्दों में उन्हें हराकर उनको अपनी सत्ता मानने पर उसने मजबूर किया।
- अगर पेशवा कम उम्र में ना चल बसता, तो ना अहमद शाह अब्दाली या नादिर शाह हावी हो पाते और ना ही अंग्रेज और पुर्तगालियों जैसी पश्चिमी ताकतें। बाजीराव का केवल चालीस साल की उम्र में इस दुनिया से चले जाना मराठों के लिए ही नहीं देश की बाकी पीढ़ियों के लिए भी दर्दनाक भविष्य लेकर आया। अगले दो सौ साल गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहा भारत और कोई भी ऐसा योद्धा नहीं हुआ, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध पाता।
 
                                                                             - अतुल सती 'अक्स'


सोमवार, 8 अगस्त 2016

मेरी रूह



ये ज़िन्दगी जाने किस मोड़ पर आ खड़ी है,
मैं कहता हूँ जाओ, वो रुकने को अड़ी है।

कैद है ये रूह इस जिस्म के कैदखाने में,
सजा-ए-मौत की सजा है,सो चुपचाप पड़ी है।

किस किसका नाम लूँ ये जिस्म किससे लड़ा,
या ये रूह ताउम्र किस किस से  लड़ी है?

तमन्नाओं का क़त्ल सरे आम वो करती है,
वो देख! ज़िन्दगी की शक्ल में मौत खड़ी है।

ये कमबख्त क़यामत कब आएगी 'अक्स',
एक ज़माने से इस जिस्म में मेरी रूह गड़ी है।

रविवार, 7 अगस्त 2016

अजीब बात


नाप  ले  कर, खुद  का, हर  बार,
एक चादर  खरीद लाता  हूँ।
और  हर  बार  अपने  पाँव,
चादर  से  बाहर ही पाता  हूँ। 

पाई  पाई  को  तरसके, 
जब  किसी  खजाने  को  पाता  हूँ। 
एक  पाई और मिल जाए, 

बस ये ही एक जुगत लगाता हूँ। 

इस  भागमभाग में  भागते  हुए,
अपनों  को  पीछे  छोड़ता जाता हूँ। 
दिखावे के साथी यूँ तो हैं बहुत,
पर, साथ कम का ही पा पाता हूँ। 


हर  चमक-धमक  को  तरसता  हूँ।  
जेब  हमेशा  छोटी ही पाता हूँ, 
सांस, यूँ तो रोज  लेता  हूँ, पर,
जाने क्यूँ, जीने को  तरस जाता  हूँ ?


नाप  ले  कर, खुद  का, हर  बार,
एक चादर  खरीद लाता  हूँ।
और  हर  बार  अपने  पाँव,
चादर  से  बाहर ही पाता  हूँ। 


                                          -अतुल  'अक्स '

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

अश्वथामा

आज की चर्चा अश्वथामा पर। अश्वथामा(द्रौणि) एक महारथी महाभारत काल का जो आज भी जीवित है। अष्ट चिरंजीवियों में से एक, परशुराम, व्यास, कृपाचार्य, हनुमान के साथ साथ अश्वथामा भी एक चिरंजीवी है इस कलियुग के।
वेद पुनः एक होंगे और फिर इन वेदों के चार हिस्से होंगे और अगले मन्वन्तर में अश्वथामा वेद व्यास का पद पाएंगे।  इस समय जैसे कृष्णद्वेपायन वेद व्यास हैं, अगले मन्वनंतर में अश्वथामा वेद व्यास होंगे और संयुक्त वेदों को चार भाग में विभाजित करेंगे।
अगले मन्वन्तर में(अष्टम) अश्व्थामा सप्तऋषि मंडल में कृष्ण द्वेपायन, परसुराम, कृपाचार्य इत्यादि के साथ स्थान पाएंगे। नयी सृष्टि में सनातन ज्ञान इन्ही सप्तऋषियों द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा।
महाभारत काल में जो योद्धा अजेय था वो अश्वथामा ही था। अश्वथामा ६४ कलाओं में और १८  विद्याओं में पारंगत हैं।   
अश्वथामा को रुद्रावतार भी कहा गया है, अश्वथामा का जन्म एक तप के फलस्वरूप पिता द्रोण और माता कृपी के घर में हुआ।  द्रोण ने भगवन शिव की आराधना की और उन्ही के समान पुत्र की कामना की, फलस्वरूप अश्वथामा हुआ।  पैदा होते ही रोने की जगह घोड़े जैसी आवाज आयी तो इनका नाम अश्वथामा पड़ा।
जन्म से ही इनके माथे पर एक मणि थी जो इन्हें इस धरा पर सर्वोच्च शक्तिशाली बनाता था। अश्वथामा ४ प्रकार के देव गुणों से बने थे,
१: रूद्र
२: यम (काल)
३: क्रोध
४: काम

[चित्र: साभार विकिपीडिया: अश्वथामा शिव रूप में पांडवों के शिविर सम्मुख ]

नारायणास्त्र और ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के कारण इन्होंने पांडवों का बहुत ज्यादा नुक्सान किया। लेकिन जिस चीज़ से पांडव, कृष्ण या खुद कौरव भय खाते थे वो था अश्वथामा का क्रोध। स्वयं भीष्म ने कहा था कि अश्वथामा अपराजेय हैं और रुद्रांश हैं, लेकिन क्रोध रूप में ये स्वयं दुसरे शिव हो जायेंगे और फिर उसका परिणाम सिर्फ विनाश ही होगा। ये बात स्वयं कृष्ण भी जानते थे और सुयोधन(दुर्योधन) भी।  इसी कारण कौरवों की और से सुयोधन ने अंत तक अश्वथामा को अपना सेनापति नहीं बनाया, जबकि तब तक अश्वथामा नारायणास्त्र चला कर और ११ रुद्रों की सहायता से आधी पांडव सेना का विनाश कर चुके थे।
अंत में जब सुयोधन को छल से भीम ने मृत्युशैया पर छोड़ दिया तो कौरवों के पास केवल ३ योद्धा ही बचे थे, अश्वथामा, कृपाचार्य और कीर्तिवर्मन। बाकी सारी सेना समाप्त हो चुकी थी। तब सुयोधन ने अश्वथामा को सेनापति बनाया और अश्वथामा ने पांचों पांडवों का सर लाने की सपथ खाई।
उस रात्रि अश्वथामा सो नहीं पा रहे थे , पांडव सेना अभी भी विशाल थी, पांडव जीवित थे, और कौरवों की और से मात्र तीन ही योद्धा बचे थे। तभी उसने एक उल्लू को कौवों के घौंसलों पर हमला करते देखा।  इसी से मन में विचार आया और उसी  रात्रि को पांडव खेमे में कृपाचार्य और कीर्ति वर्मन संग प्रवेश कर गए।
अश्वथामा ने पांडवों के समस्त पाप गिनाये कि कैसे उन्होंने भीष्म को छल से मारा, कैसे कर्ण को छल से मारा, कैसे उन्होंने अपने गुरु द्रोण को असत्य वचन कर पीठ पीछे से वार किया, कैसे सुयोधन को नियमों के खिलाफ जा कर नाभि से नीचे प्रहार कर मृत्यु शैया पर लिटाया। कौरवों की और से जिसने भी जो भी छल किया था उसका परिणाम मिल चुका है, अब पांडवों को फल भोगना है।       
उस भयानक रात्रि को केवल अश्वथामा ही लड़ा।  कृष्ण को अश्वथामा का रूप पता था इसीलिए कृष्ण ने पाँचों पांडवों को और सत्यकि को अपने साथ जंगल में लेजाकर छुप  गए। अश्वथामा जब पांडवों के शिविर के पास पहुंच तो उसने देखा की उनके शिविर की की रक्षा एक "नारायण भैरव" कर रहा है जिसे सिर्फ शिव या विष्णु ही पार पा सकते थे। उसी समय अश्वथामा शिव आराधना कर खुद को, शिव को समर्पित कर देते हैं, अग्नि में खुद को तपाते हैं और अपनी बलि शिव को समर्पित करते हैं, तब शिव और काली प्रकट होते हैं तथा उनके साथ करोड़ों काली योगिनी, काली शक्ति और काली नित्या, भूत प्रेत पिशाच और समस्त शिव गण प्रकट होते हैं।
शिव कहते हैं की अब तक उभोने कृष्ण के प्रेम और श्रद्धा का मान रखा था, पांडवों की रक्षा भी करी, अश्वथामा के जवाब के लिए ही अर्जुन ने शिवआराधना की थी, लेकिन अब उनके वरदानों का समय समाप्त हो चुका है और अब शिव स्वतंत्र हैं। शिव प्रसन्न थे अश्वथामा के तप से।
और फिर अश्वथामा के शिव रूप को जाग्रत करते हुए शिव अश्वथामा में समाहित हो जाते हैं, और माँ काली और शिव स्वयं अपने गणों द्वारा वहाँ उपस्थित समस्त जीवों का विनाश करते हैं। पांडवों के सारे शिविर जला देते हैं। सभी और केवल राख और चीत्कार ही सुनायी देती है।  
अश्वथामा शिव रूप में अति शक्ति शाली हो चुके थे, और सर्वप्रथम पांडव सेनापति, द्रोण का हत्यारा धृष्टद्युम्न से युद्ध करके उसे खाली हाथ ही यमलोक पहुंच देते हैं। तत्पश्चात शिखंडी, उत्तमौजस् का वध करते हैं।  शिव रूप के सम्मुख कोई कहीं नहीं ठहर पाता।  अंत में पांडवों के शिविर में जा कर सोये हुए पाँचों पाण्डवपुत्रों के शीश काट देते हैं और लौट आते हैं। शिव रूप अलग होता है और अब अश्वथामा अपने मूल रूप में सुयोधन के सामने आचुके थे। पाँचों शीशों को देख कर सुयोधन शती से प्राण त्यागदेता है। अगले दिन जब पाण्डव कृष्ण और सत्यकी वापस आते हैं और देखते हैं कि उनकी सेना में, परिवार में, कोई नहीं बचा तो दुःख और क्रोध से भरे वो अश्वथामा से युध्द करने जाते हैं। अश्वथामा और अर्जुन दोनों ही ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं जिसे नारद तथा व्यास जी द्वारा रोक लिया जाता है।  व्यास कृष्ण पांडव और अश्वथामा पर क्रोधित हो कर उन्हें ब्रह्मास्त्र वापस लेने के लिये कहते हैं। अर्जुन वापस ले लेते हैं किन्तु अश्वथामा वापस लेना नहीं जानते थे, क्योंकि उनके पिता ने ये ज्ञान केवल अर्जुन को ही दिया था अपने पुत्र को नहीं। कहीं किसी और दिशा में बीएड करने की आज्ञा कृष्ण से पा कर अश्वथामा इसे अभिमन्यु की पत्नी के गर्भ में पल रहे परीक्षित की और भेज देते हैं और अंतिम ज्ञात पांडव कुल की वंशबेल समाप्त कर देते हैं।  इस घटना से कृष्ण कुपित हो कर अश्वथामा का मस्तकमणि वापस मांगते हैं, जिसे अश्वथामा भीम को देदेते हैं, और कृष्ण शाप देते हैं की अगले ३००० वर्ष तक अश्वथामा को कोढ़ हो जायेगा, और उनके घाव सड़ते रहेंगे क्योंकि उन्होंने अजन्मे बालक का वध किया। कृष्ण अपने टप और पूण्य से परीक्षित को जीवित करते हैं। तभी से अश्वथामा शापित घूम रहे हैं और अपने पापों का प्रयाश्चित कर रहे हैं।                                          

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

दैत्य, दानव, राक्षस, असुर : भ्रान्ति

भारतीय धार्मिक कथाएँ- इंडियन माइथोलॉजी (जिसे अंग्रेजों ने मिथ = झूठ नाम से प्रचारित किया था, हालाँकि अब हम इसे ग्रीक वर्ड मानकर- मिथ = पुरानी कथा मानकर, स्वीकार कर चुके हैं।) जितना ज्यादा पढ़ रहा हूँ, जितना जान रहा हूँ, उतना ही विचित्र अनुभव कर रहा हूँ। हर एक पात्र की एकदम ही अलग अलग कहानियाँ हैं, बस जो चल निकली वो ही धार्मिक गाथा बन गयी, और वो ही मान्यता, आज कल उसे ही धर्म कहने लगे। सत्य क्या है किसी को नहीं पता। असल में, जहाँ तक मेरा मानना है कभी कोई धर्म-अधर्म का युद्ध हुआ ही नहीं बल्कि सदा ही सभ्यताओं का युद्ध हुआ है।सत्ता के लिए युद्ध हुआ और जो जीता उसके ही हिसाब से इतिहास लिखा गया।
शिव को असुर भी कहा गया है, ये आज कौन मानेगा? असुर का मतलब दैत्य,दानव या राक्षस नहीं है, जिसने सुरा(देव मदिरा) पी वो सुर, जिसने नहीं वो असुर। महादेव ने विषपान किया था। सुरापान नहीं। पहले सुर और असुर दोनों आर्य ही थे; परन्तु जिन लोगों ने सुरा नहीं ग्रहण की, वे असुर और जिन्होंने ग्रहण की, वे सुर कहलाये।

रामायण का यह श्लोक इसी प्रकार का है-
सुराप्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः। अप्रतिग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरास्तथा॥

जो जंगलों(धरा-प्रकृति) के रक्षक थे, जो रक्षण करते थे, वो रक्ष जाति के हुए, जिन्हें हम राक्षस कहते हैं। जो जंगलों(धरा-प्रकृति) का यक्षण(पूजा) करते थे वे यक्ष कहलाये।

  • दैत्य, कश्यप-दिति के पुत्र थे,
  • आदित्य(देवता), कश्यप- अदिति के पुत्र थे,
  • दानव , कश्यप- दनु से 
  • राक्षस , कश्यप- सुरसा से 
तो ये सब सौतेले भाई बहन थे। दानव, दैत्य, राक्षस , देवता ये सब एक ही पिता की संतान थे। लेकि आजकल हम दैत्य, दानव, राक्षस, असुर को एक ही मानते हैं जबकि ये अलग अलग ही थे। सभ्यता अलग थी सभी की। कोई भी अच्छा या बुरा नहीं था।

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सोमवार, 1 अगस्त 2016

मैं अर मेरू जोगी

हे माँ !!!
अब मैते जाण दे, 
मैते मेरू जोगी बुलौणू च। 
वू बैठयूँ च भस्म लगे की, 
अपरी मस्त धूनी रमैं की, 
मिन भी अब भस्म लगे ली माँ, 
मिन भी अब धूनी रमें ली माँ, 
अब मी उड़न लग्यूँ च,
ये आसमान मा, 
हे माँ मेरी!!!
मिन अब अफ्फू ते पै ली,
मैते मेरु 'अक्स' दिखेगी,
जाण दे हे माँ मैते अब, 
हे माँ अब मैते जाण दे, 
मैते मेरू जोगी बुलौणू च। 

-अतुल सती '‪#‎अक्स‬'