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गुरुवार, 4 अगस्त 2016

अश्वथामा

आज की चर्चा अश्वथामा पर। अश्वथामा(द्रौणि) एक महारथी महाभारत काल का जो आज भी जीवित है। अष्ट चिरंजीवियों में से एक, परशुराम, व्यास, कृपाचार्य, हनुमान के साथ साथ अश्वथामा भी एक चिरंजीवी है इस कलियुग के।
वेद पुनः एक होंगे और फिर इन वेदों के चार हिस्से होंगे और अगले मन्वन्तर में अश्वथामा वेद व्यास का पद पाएंगे।  इस समय जैसे कृष्णद्वेपायन वेद व्यास हैं, अगले मन्वनंतर में अश्वथामा वेद व्यास होंगे और संयुक्त वेदों को चार भाग में विभाजित करेंगे।
अगले मन्वन्तर में(अष्टम) अश्व्थामा सप्तऋषि मंडल में कृष्ण द्वेपायन, परसुराम, कृपाचार्य इत्यादि के साथ स्थान पाएंगे। नयी सृष्टि में सनातन ज्ञान इन्ही सप्तऋषियों द्वारा प्रस्तुत किया जायेगा।
महाभारत काल में जो योद्धा अजेय था वो अश्वथामा ही था। अश्वथामा ६४ कलाओं में और १८  विद्याओं में पारंगत हैं।   
अश्वथामा को रुद्रावतार भी कहा गया है, अश्वथामा का जन्म एक तप के फलस्वरूप पिता द्रोण और माता कृपी के घर में हुआ।  द्रोण ने भगवन शिव की आराधना की और उन्ही के समान पुत्र की कामना की, फलस्वरूप अश्वथामा हुआ।  पैदा होते ही रोने की जगह घोड़े जैसी आवाज आयी तो इनका नाम अश्वथामा पड़ा।
जन्म से ही इनके माथे पर एक मणि थी जो इन्हें इस धरा पर सर्वोच्च शक्तिशाली बनाता था। अश्वथामा ४ प्रकार के देव गुणों से बने थे,
१: रूद्र
२: यम (काल)
३: क्रोध
४: काम

[चित्र: साभार विकिपीडिया: अश्वथामा शिव रूप में पांडवों के शिविर सम्मुख ]

नारायणास्त्र और ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के कारण इन्होंने पांडवों का बहुत ज्यादा नुक्सान किया। लेकिन जिस चीज़ से पांडव, कृष्ण या खुद कौरव भय खाते थे वो था अश्वथामा का क्रोध। स्वयं भीष्म ने कहा था कि अश्वथामा अपराजेय हैं और रुद्रांश हैं, लेकिन क्रोध रूप में ये स्वयं दुसरे शिव हो जायेंगे और फिर उसका परिणाम सिर्फ विनाश ही होगा। ये बात स्वयं कृष्ण भी जानते थे और सुयोधन(दुर्योधन) भी।  इसी कारण कौरवों की और से सुयोधन ने अंत तक अश्वथामा को अपना सेनापति नहीं बनाया, जबकि तब तक अश्वथामा नारायणास्त्र चला कर और ११ रुद्रों की सहायता से आधी पांडव सेना का विनाश कर चुके थे।
अंत में जब सुयोधन को छल से भीम ने मृत्युशैया पर छोड़ दिया तो कौरवों के पास केवल ३ योद्धा ही बचे थे, अश्वथामा, कृपाचार्य और कीर्तिवर्मन। बाकी सारी सेना समाप्त हो चुकी थी। तब सुयोधन ने अश्वथामा को सेनापति बनाया और अश्वथामा ने पांचों पांडवों का सर लाने की सपथ खाई।
उस रात्रि अश्वथामा सो नहीं पा रहे थे , पांडव सेना अभी भी विशाल थी, पांडव जीवित थे, और कौरवों की और से मात्र तीन ही योद्धा बचे थे। तभी उसने एक उल्लू को कौवों के घौंसलों पर हमला करते देखा।  इसी से मन में विचार आया और उसी  रात्रि को पांडव खेमे में कृपाचार्य और कीर्ति वर्मन संग प्रवेश कर गए।
अश्वथामा ने पांडवों के समस्त पाप गिनाये कि कैसे उन्होंने भीष्म को छल से मारा, कैसे कर्ण को छल से मारा, कैसे उन्होंने अपने गुरु द्रोण को असत्य वचन कर पीठ पीछे से वार किया, कैसे सुयोधन को नियमों के खिलाफ जा कर नाभि से नीचे प्रहार कर मृत्यु शैया पर लिटाया। कौरवों की और से जिसने भी जो भी छल किया था उसका परिणाम मिल चुका है, अब पांडवों को फल भोगना है।       
उस भयानक रात्रि को केवल अश्वथामा ही लड़ा।  कृष्ण को अश्वथामा का रूप पता था इसीलिए कृष्ण ने पाँचों पांडवों को और सत्यकि को अपने साथ जंगल में लेजाकर छुप  गए। अश्वथामा जब पांडवों के शिविर के पास पहुंच तो उसने देखा की उनके शिविर की की रक्षा एक "नारायण भैरव" कर रहा है जिसे सिर्फ शिव या विष्णु ही पार पा सकते थे। उसी समय अश्वथामा शिव आराधना कर खुद को, शिव को समर्पित कर देते हैं, अग्नि में खुद को तपाते हैं और अपनी बलि शिव को समर्पित करते हैं, तब शिव और काली प्रकट होते हैं तथा उनके साथ करोड़ों काली योगिनी, काली शक्ति और काली नित्या, भूत प्रेत पिशाच और समस्त शिव गण प्रकट होते हैं।
शिव कहते हैं की अब तक उभोने कृष्ण के प्रेम और श्रद्धा का मान रखा था, पांडवों की रक्षा भी करी, अश्वथामा के जवाब के लिए ही अर्जुन ने शिवआराधना की थी, लेकिन अब उनके वरदानों का समय समाप्त हो चुका है और अब शिव स्वतंत्र हैं। शिव प्रसन्न थे अश्वथामा के तप से।
और फिर अश्वथामा के शिव रूप को जाग्रत करते हुए शिव अश्वथामा में समाहित हो जाते हैं, और माँ काली और शिव स्वयं अपने गणों द्वारा वहाँ उपस्थित समस्त जीवों का विनाश करते हैं। पांडवों के सारे शिविर जला देते हैं। सभी और केवल राख और चीत्कार ही सुनायी देती है।  
अश्वथामा शिव रूप में अति शक्ति शाली हो चुके थे, और सर्वप्रथम पांडव सेनापति, द्रोण का हत्यारा धृष्टद्युम्न से युद्ध करके उसे खाली हाथ ही यमलोक पहुंच देते हैं। तत्पश्चात शिखंडी, उत्तमौजस् का वध करते हैं।  शिव रूप के सम्मुख कोई कहीं नहीं ठहर पाता।  अंत में पांडवों के शिविर में जा कर सोये हुए पाँचों पाण्डवपुत्रों के शीश काट देते हैं और लौट आते हैं। शिव रूप अलग होता है और अब अश्वथामा अपने मूल रूप में सुयोधन के सामने आचुके थे। पाँचों शीशों को देख कर सुयोधन शती से प्राण त्यागदेता है। अगले दिन जब पाण्डव कृष्ण और सत्यकी वापस आते हैं और देखते हैं कि उनकी सेना में, परिवार में, कोई नहीं बचा तो दुःख और क्रोध से भरे वो अश्वथामा से युध्द करने जाते हैं। अश्वथामा और अर्जुन दोनों ही ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं जिसे नारद तथा व्यास जी द्वारा रोक लिया जाता है।  व्यास कृष्ण पांडव और अश्वथामा पर क्रोधित हो कर उन्हें ब्रह्मास्त्र वापस लेने के लिये कहते हैं। अर्जुन वापस ले लेते हैं किन्तु अश्वथामा वापस लेना नहीं जानते थे, क्योंकि उनके पिता ने ये ज्ञान केवल अर्जुन को ही दिया था अपने पुत्र को नहीं। कहीं किसी और दिशा में बीएड करने की आज्ञा कृष्ण से पा कर अश्वथामा इसे अभिमन्यु की पत्नी के गर्भ में पल रहे परीक्षित की और भेज देते हैं और अंतिम ज्ञात पांडव कुल की वंशबेल समाप्त कर देते हैं।  इस घटना से कृष्ण कुपित हो कर अश्वथामा का मस्तकमणि वापस मांगते हैं, जिसे अश्वथामा भीम को देदेते हैं, और कृष्ण शाप देते हैं की अगले ३००० वर्ष तक अश्वथामा को कोढ़ हो जायेगा, और उनके घाव सड़ते रहेंगे क्योंकि उन्होंने अजन्मे बालक का वध किया। कृष्ण अपने टप और पूण्य से परीक्षित को जीवित करते हैं। तभी से अश्वथामा शापित घूम रहे हैं और अपने पापों का प्रयाश्चित कर रहे हैं।                                          

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