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सोमवार, 8 अगस्त 2016

मेरी रूह



ये ज़िन्दगी जाने किस मोड़ पर आ खड़ी है,
मैं कहता हूँ जाओ, वो रुकने को अड़ी है।

कैद है ये रूह इस जिस्म के कैदखाने में,
सजा-ए-मौत की सजा है,सो चुपचाप पड़ी है।

किस किसका नाम लूँ ये जिस्म किससे लड़ा,
या ये रूह ताउम्र किस किस से  लड़ी है?

तमन्नाओं का क़त्ल सरे आम वो करती है,
वो देख! ज़िन्दगी की शक्ल में मौत खड़ी है।

ये कमबख्त क़यामत कब आएगी 'अक्स',
एक ज़माने से इस जिस्म में मेरी रूह गड़ी है।

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